शनिवार, 18 जुलाई 2009

मृगतृष्णा


मृगतृष्णा और इंसान में
उतना ही अंतर है
जितना अंतर प्रेम और प्यास में
जीवन और आस में है
आशाओं के छोटे-बडे टापुओं को लाँघते हुये हम
वहीं पहुँच पाते हैं केवल,
जहाँ दूर तक फैला हुआ पानी है
और लगातार लम्बी होती घनी परछाईयाँ हैं
तमाम उम परछाईयों के पीछें भागते
पानी से प्यास बुझानें की असफलता में
डूबे- ऊबें हम
आस पर टेक लगायें दूर तक
देखने के आदि हो चले हम
एक छलावे से निपटने के बाद
दूसरे छलावे के लिये तैयार हम
कभी रुकते ही नहीं
मानों छलावा ही हमारी नियति है
किसी दुसरी मृगतृष्णा के मुहाने पर
हम तैयार हो बैठे जाते है
दोनो आँखे खुली रखे
और दोनो मुट्ठियों को बंद रखे हुये।

9 टिप्‍पणियां:

MUMBAI TIGER मुम्बई टाईगर ने कहा…

मृगतृष्णा और इंसान में
उतना ही अंतर है
जितना अंतर प्रेम और प्यास में
जीवन और आस में है


बहुत सुन्दर।

आभार/शुभमगल
मुम्बई टाईगर
हे प्रभु यह तेरापन्थ

अनिल कान्त ने कहा…

आपने इंसान के बारे में सही लिखा है

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

Dr. Ashok Kumar Mishra ने कहा…

nice poem with realistic feeling

http://www.ashokvichar.blogspot.com

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना!

Vinay ने कहा…

बेहतरीन!

विवेक रस्तोगी ने कहा…

बहुत बढ़िया।

M VERMA ने कहा…

आस पर टेक लगायें दूर तक
देखने के आदि हो चले हम
==
वाह सुन्दर बिम्ब
सुन्दर रचना

sanjay vyas ने कहा…

हमारा मन तृषित रहने को अभिशप्त है...सहज प्रवाह में, सुंदर.

Shayar Ashok : Assistant manager (Central Bank) ने कहा…

मृगतृष्णा और इंसान में
उतना ही अंतर है
जितना अंतर प्रेम और प्यास में
जीवन और आस में है


बहुत अच्छी रचना है.....
पढ़कर बहुत अच्छा लगा !!