सोमवार, 28 जुलाई 2008

परछाई


इस जीवन में हर कोई परछाईयों के पीछे भागता रहता है। कभी ये परछाईयाँ तेज भागती है तो कभी सामने आ कर अपना हिसाब किताब माँगती हैं, तमाम जीवन इन्हीं परछाईयों के आगे पीछे घुमता रहता है और अंत में खतम हो जाता है। हर परछाई का अलग रुप-रंग है इसीलिये हमें कोई कम तो कोई ज्यादा पसंद आती है। कई बार ऐसा भी होता है ये परछाईयाँ कभी हमसे ही दूर भागती दिखाई देती हैं तो कभी हमारे पास आकर हमें ढाँढस बढाने लगती हैं।

परछाईयों के पीछे-पीछे
हमेशा परछाईयों के पीछे-पीछे
भागती रही थी मैं
बरसों बरस
लाभ-हानि, नफा-नुकसान और दुनियादारी
के तमाम प्रलोभनों को बहुत पीछे छोड कर
हर परछाई
खंडहरों के करीब ला कर
छोड देती रही
जिसके अनेक खिडकीयाँ, अनेक दरवाजें तो थे
पर वहाँ हवाओं के आने जाने का
सीधा-सरल रास्ता भी साफ नहीं था
बाहर निकलनें की जद्धोजहद में
दीवारों से सिर टकरा-टकरा कर
हवाओं को दम तोडते हुये
देखा है मैनें अकसर
हर खंडहर के दरवाजे पर
एक सी मुहर की पहचान
भीतर भयावह अंधेरे का बसेरा
गरदन पकडती घुटन
और अवसाद में डुबी हुई उमस
का जमावाडा

बडी कोशिशों के बाद खंडहरों के आकर्षण से दूर
निकल पाती हुँ
तभी एक नई परछाईं
पवित्रता का उज्जवल बाना
ओढ कर
अलग आकर्षण के साथ
खडी नजर आती है
शायद अब की बार फिर
किसी परछाईं के साथ
कदम मिलाती हुई चल दुगीं
उन्कें भीतर मौजुद खंडहरों
के नजदीक।
सच, परछाईयों का तिलिस्म बहुत गहरा है।


सोमवार, 21 जुलाई 2008

यह धुआँ कहाँ से उठता है

दिलीप कुमार की बेहतरीन अदाकारी, सुचित्रा सेन की मासुमियत और वैजयतीमाला का बेहतरीन नृत्य।शरतचंद्र चटर्जी की कालजयी कहानी देवदास को लेकर विमल मित्र ने जो इतिहास रचा था उसे दोहराने की कोशिश में हमारे कई प्रतिभावान फिल्म निदेशक असफल रहे हैं। देवदास का संगीत दिया था सचिन देव बर्मन ने। इस फिल्म के सभी गीतों ने गजब ढाया था कोई कैसे भुल सकता है मितवा मितवा के दर्द भरे बोल थे, आगे तेरी मरजी का खूबसूरत गीत और जिसे तू कबुल कर ले वह कली कहाँ से लाऊँ का अवसाद से भरा गीत। दिलीप कुमार इस फिल्म में महज २६ साल के थे और देवदास में काम के बाद ही ट्रेजेडी किंग का खिताब मिला था। उन्की चुप्पी उन्कें शब्दों पर भारी पडती दिखती रही हमेशा। वे देवदास के किरदार में इतना ढुब गये थे उन्हें साईकोलोजिसट की मदद लेनी पडी थी।
देवदास की कहानी अतिभावनात्तमक कहानी है। शरतचंद्र ने खुद इस तरह की नियती को अच्छा नहीं माना था। जीवन कुछ सीधी सीधी रेखा में आगे बढता तो शायद उसमें असाधारणता न होती। एक सपने के पूरे होने की राह में जो अडचन आती हैं उन्हीं से टक्कर लेते लेते एक जीवन अस्त हो जाता है और दुसरी ओर एक शमा है जो शायद जलने के लिये ही इस दुनिया में आयी है। मुझे इस फिल्म के दो सीन हमेशा याद रहेगें एक, जब बडा होकर देवदास, पार्वती से मिलने ऊपर जाता है और लालटेन की रोशनी में पार्वती से पुछता है कैसी हो पार्वती और दुसरा जब रात में देवदास के पास छुप कर आती है तो देवदास जिस भोलेपन से कहता है तुम अकेली रात में मेरे कमरे में आयी हो, अब मैं तुम्हें बदनाम करूँ। वो सपने ही तो थे जो देवदास के इतने करीब बस गये थे वो लौट कर नहीं जाना चाहते थे। वो अपने बसने के लिये थोडी सी जमीन मागतें थे। दुनिया वो भी उन्से छीन लेती है। तब वे सपने रोते बिसुरते हुये दूर दूर तक बिखर जाते हैं और साथ ही टुट जाता है देवदास भी। बाकी बचा रह जाता है धुंआ जो हमेशा किसी न किसी चाहने वाले को लीलता रहेगा।
धुआँ
क्या हम कभी नहीं जान पायेगे
कि भीतर का यह धुआँ कैसे उठा
क्योंकर उठा
क्या कुछ जला है भीतर
क्या सुलगा रहा है
भीतर
एक दिल ही तो है
शायद दिल ही है
यकिनन दिल ही है
दिल ही सुलगने की कुरवत रखता है
या सपने सुलग सकते है
मामला दिल का हो तो
कई चीजें अनायास ही उससे आ जुडती हैं
और सुलगने का सामान बनती हैं
इस सुलगने समय में
हमारी तनहाई ही मेरा सबसे बडा हथियार बनती है
तब भीड के दिलासा देने के सभी दावे खोखले पड जाते हैं
कुछ सपने कुछ हक्किते
कुछ बातें, थोडी खामोशी
का लेखा जोखा जो हमारे पास सुरक्षित है
जो सुलग सकते है यह आग उन्हीं को
जलाती है जो जल सकते हैं
जो भस्म हो सकते हैं
जो राख में तबदील हो सकते हैं
जो एक लम्बी उमर धुँये को अपने में समाये रख सकते हैं।

शनिवार, 12 जुलाई 2008

महानगर


महानगरों में बढते प्रदूषण के कारण जनसाधारण की परेशानियाँ बढती जा रही है। हरित भूमि की कमी होती जा रही है। पिछले पाँच वषों में जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण में कमश ७८, ७६ की वृदि हो रही है। गंगा और यमुना में प्रदुषण गहराता जा रहा है। गंगा एकशन पलान को शुरू हुये कितने साल हो चुके हैं पर कोई ठोस नतीजा सामने नहीं आ सका है। महानगरों में करवाये जाने वाले सर्वेक्षण से पता चलता है कि सबसे ज्यादा वायु प्रदूषण हैदराबाद में है, जल और ध्वनि प्रदूषण बेगलूर में है। इसके अलावा जल की कमी महानगरों की सबसे बडी समस्या है। जल समस्या का सबसे बेहतर समाधान जल संरक्षण ही है।

महानगर पर एक कविता
महानगरों में बने रहते हैं हम
अपने आप को लगातार
ढुँढते हुये
महानगर के बोझ को
अपने कमजोर कंधों पर ढोते हुये
अभिमान से अभिज्ञान के लम्बे सफर में
बेतरतीब उलझे हुये हम
महानगर की धमक हमें
हर कदम पर
साफ सुनाई देती है
इसकी चाल में बडा बेरहम शोर है
वह घंटों अपने आप से ही बोलता बतियाता है
किसी जीवित शख्स के साथ
दो पल बतियाने का समय नहीं है उसके पास

हम महानगर के शयनकक्ष में आ गये हैं
यहीं अपने आप को पूरी तरह खोने का
सही सही मुआवजा लेगें

दूर तक बिखरी हुई उदासी से खुशी के
बारीक कणों को
छानते हुये
महानगर के सताये हुये हम
अपने गाँवों कसबों से
बटोर लायी हुई खुशियों
को बडी कँजूसी से खर्च करते हैं

महानगर के करीब आने पर हमें
अपने बरसों के गठरी
किये हुये सपनों को
परे सरका कर उसकी कठोर जमीन पर
नगे पाँव चलनें की आदत डालनी पडी है

उसके पास खबरों का दूर तक
फैला हुआ कारोबार है
पर जो महीन खबरें महानगर के पथरीले पाँवों के
नीचें आकर कुचली जाती हैं
वही हम सबके लिये बडी पीडा का
सबब बनती हैं
ये विशाल नगर
एक हाथ से देने में आना कानी
करते हैं पर
दोनों हाथों से छीनते हुये
जरा भी संकोच नहीं करते
अपनी अदभुत विशेषताओं के कारण
एक साथ कई रंग दिखाने में माहिर है महानगर

फलाई ओवर के नीचे से गुजरते हुये
एक रेडिमेड उदासी हमारे अगल बगल
हो लेती है
लम्बी चौडी इमारतें, मैट्रो हमें
तुम्हारी बादशाहत और
झोपडी हमें अपने फक्कडपन का
अहसास दिला देती है

तुम्हें लाघते हुये चलते चलना
अपने आप को
बडा दिलासा देना है
तुम्हारी चाल बहुत तेज है महानगर
पर तुम्हें शायद मालुम नही
एक समय के बाद
दौडते फाँदते, इठलाते खरगोश की
चाल भी मंद पड जाती है।