मंगलवार, 29 जून 2010

चाक पर जीवन


अनगढ,
बेलौस, बेडौल, हज़ारों-हज़ारों
परतों, अणुओं, खुशबुओं सा जीवन


कभी पकता भाप में,
कभी सिकता ताप में
सूखता पल भर में मिली छाया तले


गुंथता, धपकियाँ सहता
फिर देर-सवेर
पा ही जाता अपना असली स्वरूप
चाक पर ही घूमते-घूमते।

रविवार, 27 जून 2010

लोक जीवन और लोक गीत


बचपन मे गाँव में त्योहारों के दिनों में जाना बेहद अच्छा लगता था। होली के कुछ दिन पहले ही रातें रंगीन होती है हम सभी बच्चा मँडली रात- रात भर नाचते गाते और खेलते थे। गाँव की लडकियाँ मुझ से शहर के गाने सुनती थी और जब मुझे इक ही गाना पूरा आता था वो था, शायद मेरी शादी का ख्याल दिल में आया है, इसिलिये मम्मी ने मेरी तुझे चाय पर बुलाया है। उन्हीं दिनों गाँव की मेरी सहेलियाँ से सीखा गया एक हरियाणवी गीत मुझे इतने बरस बीत जाने के बात भी पूरा का पूरा याद है।

रेल बोली रेल की बम्बीरी बोली रै,
किसे नै मेरे हाथ मै ज़ज़ीर घाली रै

संगीत की उत्पति मानव सभ्यता जितनी ही पुरानी है। अपनी खुशी का इज़हार करने के लिये इंसान ने संगीत और का सहारा लिया। सिन्धु घाटी सभ्यता से कई वाद्य- यन्त्र बरामद हुये है। हमारे देश में हर मौसम के लिये अलग- अलग राग है, उन्हें गाने बजाने के लिये समय भी निर्धारित है।

हर का गीत-संगीत एक दूसरे से अलग है, पंजाब का जोश से भरा संगीत जब फसल कट का घर आती है और जब शादी का अवसर होता है या बच्चे होने की खुशी पुरा घर संगीत से थिरकता है।
हमारे लोक गीत वाचिक परम्परा का सबसे सशक्त उदाहरण हैं। पुराने समय में जब सिनेमा और नाटक संस्कति अस्तित्व में नही आए थे तब लोग अपनी खुशियों को नाच-गा कर व्यक्त करते थे। तब शिक्षा का ज्यादा विस्तार नही हुआ था। लोग अपने आस-पास के वातावरण,अपने अनुभव,देखे-सुने किस्से, पोराणिक पात्रो की शोर्य गाथाओं, देश के लिए शहीद होने वाले नायकों के पराक्रम का वर्णन होता है। लगभग हर लोकगीत में जीवन का कोई न कोई महतवपूर्ण संदेश छुपा होता था। भारत में ऐसे कई लोक गायक हुए हैं जो लोक गायिकी में अपनी विशिष्ट शैली के लिए जाने जाते रहे हैं।

लोक गीतों का ग्रामीण परिवेश में अहम स्थान है, ग्रामीण जीवन को लोक गीतों से अलग कर के नहीं देखा जा सकता। वहाँ की लगभग सभी गतिविधियों में लोक गीतों का दखल रहता है। हर प्रदेश की अपनी अलग लोक गीतों की परम्परा होती है जो उसकी अपनी धरती के दुख-सुख, राग-विराग, संघर्षो की कहानी कहती है।
लोक संस्कृति का कोई जोङ नही है। हर गाँव की अपनी अलग विरासत होती है। जो धूल-मिट्टी, गोबर के बीच की संस्कृति में पलती है, उसकी महक अनोखी होती है। वो हमेशा अपने सोंधेपन के कारण याद रहती है।
जब शादी-ब्याह में महिलाएँ इकट्ठे होकर गीत गाते हूऐ कहती हैं

मुढे पर बैठ्या मेरा बीर बाच रह्या चिट्ठी,
बेबे साचम-साच बतादे क्यांतै ऐ होगी माङी


और लङकी को ससुराल के लिए हिदायत देते हुए गाती हैं-
आज बधावा रस दयानन्द का,
उसके बेते कै ब्याही आई हे सखी

होली के लिए, कातक नहाने के लिए, हर मौके के लिए गीतों की कमी कभी नहीं रही।
शादी के मौके पर उलाहना देती हुई महिलाएँ गाती हैं-

हमनै बुलाए लाम्बे-लाम्बे,
औछे-औछे आए रे

कुछ और लोक गीतों की बानगी देखिए। अपने बारे में बखान करते हुए वे कहती हैं-

मेरे सर पै बंटा टोकणी,
मेरे हाथ मैं नेजुँ डोल
मैं पतली सी कामणी।
और जैसे-

- सरङक पर लार सिपाईयाँ की,
एडी मटकै ब्याई-मुकलाईयाँ की।

-लिया-लिया ऐ बावङ मेथै का भरोटा,
ल्या बलधाँ नै गेर दिए।
कोन्या ल्याऊँ ए सासङ मेथै का भरोटा,
के बलधाँ मैं सीर मेरा।।

कातक माह में लङकियाँ सुबह कातक नहाने जाती हैं। हर रोज थोङी-थोङी मिट्टी इकट्ठा करती हैं और फिर उस पर जौ बोति हैं, अपनी इच्छित मनोकामना के लिए प्रार्थना करती हुई गीत गाती हैं।
गीत चाहे कोई भी हो, वे हमारे जीवन में रस घोलते हैं और दैनिक भागदौङ के बीच लोग इन्हे सुनकर आराम पाते हैं। वैसे भी लोक गीत तो जमीन से जुङे गीत हैं, इनमे सुख-दुख, राग-विराग की कहानियाँ हैं।
लेकिन आधुनिकता के इस दौर मे जहाँ सभी स्थापित मान्यताएँ और साँस्कृतिक मुल्य दम तोङते जा रहे हैं, उससे शहरी ही नहीं अपनी को मजबूती से पकङे हूए ग्रामीण भी अपनी पुरानी परिपाटी को छोङते जा रहे हैं। खेत-खलिहानों में काम करने का तरीका बदल गया है। अब सुबह महिलाएँ हाथ की चक्की नही चलाती, दूध नही बिलौती, इन सभी कामों के लिए बिजली की मशीनें आ गई हैं। कुऔं और सार्वजनिक नलों से पानी लाने की परम्परा भी खत्म हो चुकी है। घर-घर नलके लगने से अब इसकी जरुरत नही रह गई है। ग्रामीण लोक पहनावा भी विलुप्त हो गया है। लोक गीत-संगीत अपनी महक ना खोने पाये इसके लिये छोटे बच्चों को इस और रूचि जगाने के प्रयास होने चाहिये।

शनिवार, 12 जून 2010

खामोशी और शब्द



न जाने बेजान स्मृतियों में इतनी
ताकत कहां से आ गई कि वे
यकायक उठ कर वर्तमान में अपनी
जडें तलाशने लगी थी ।

शायद यह वक्त ही
अपने आप को पूरा होते हुए
देखने का था


मैंने अपने दोनों हाथ उठाये
मेरी दुआ तुरंत कबुल हो गई

समय खामोशी के साथ था
इससे पहले की शब्द अपना
मनचाहा आकार ले पाते
खामोशी अपना काम कर गई

शनिवार, 5 जून 2010


शुरुआत या अंत

एक ऊंची उठती आज़ान के आस-पास
ही उगे थे कुछ अहसास
कुछ जन्म ले रहा था कहीं
यह शुरुआत थी या किसी चीज का अंत

वह सपनें की तरह आया ओर
हकीकत की तरह लौट गया

उसके आने से उस दिन का
इतिहास कुछ बदल सकता था
दूसरा अच्छा या बुरा पन्ना
मेरी जिंदगी में जुड सकता था

पर वक्त शायद इस दोस्ती
को कुछ देर ओर टिकाये
रखना चाहता था।