जहाँ हमारी हिंदी फिल्मों में बेहतरीन विषयों की पटकथा की कमी का रोना रोया जाता हो, वहीं एक हैरतअगेज़ विषय पर फिल्म बनाने का बीडा उठानें का काम किया है, मज़हर कामरान, उदय प्रकाश और आभा सौनकिया की टीम ने। हमारे हिंदी फिल्मों के अब तक के इतिहास में किसी साहित्तिक कृति पर चंद ही फिल्में बनी हैं। हमारे समय के बेहतरीन कथाकार उदय प्रकाश के इसी नाम से चर्चित उपन्यास को फिल्म निमाता मज़हर कामरान ने फिल्म की परिपाटी पर उतारने के लिये मूक उपन्यास में थोडा बहुत फेर बदल किया है। मोहनदास फिल्म का संगीत का पक्ष बेहतरीन है, यश मालवीय के गीत के बोल बेहद मधुर हैं। समीक्षकों ने मोहनदास को तीन स्टार दिये हैं, यानि साधारण से कुछ ऊपर। फिल्म में खालिस गाँव के दृश्यों को देखकर मन हर्षित हो उठता है।
ढेरों की तादाद में बन रही फिल्मों में दर्शकों को लुभाने के लिये कई तरह की मसाला डाला कर पेश किया जा रहा है और गाँधी को भी गाँधीगीरी के मसाले में अच्छी तरह लपेट कर परदे पर बेचा जा रहा है। ज़माना बेहतर पैकेज़िग का है फिर चाहे भीतर का माल रद्दी ही क्यों ना हो। मोहनदास में यही कमी रह गयी, अंदर की स्टोरी अच्छी थी पर पैकेज़िग खराब। स्टार कास्ट दर्शकों को अपनी ओर आकर्षित करने वाली नहीं थी। दुसरा फिल्म के शीर्षक "मोहनदास" को लेकर भी दर्शकों पशोपेश में थे। "मोहनदास" शीर्षक से सभी के दिमाग में कहीं ना कहीं महात्मा गांधी की छवि ही लोगो के दिमाग में बनती रही और यह कटु सत्य है कि संसार की चंद महान हस्ती में शामिल गाँधीजी भी आज के समय में बिना गाँधीगीरी के चालू फोर्मुले के नहीं बिकते। बज़ारवाद के इस प्रैक्टिकल समय में मोहनदास जैसे गंभीर विषय पर एक बेहतरीन फिल्म बनते बनते रह गई या बनाते बनाते रह गयी। यानि सदभावनाऐं बहुत भली थी पर मामला किन्हीं कारणों से जमा रहता है। हर उपन्यासकार अपने उपन्यास पर फिल्म बनाते हुये उन दर्शकों को भी अपने साथ जोडना चाहता है जो हिंदी साहित्य को पढने में ज़रा भी रूचि नहीं दिकाता। पर युवा वर्ग को मोहनदास फिल्म अपने पास नहीं खींच पायी, सबसे पहले तो को सिनेमाघरों की ओर खींच लाने का मादा होना चाहिये और उसके लिये चाहिये चमकली- भडकीली स्टार-कास्ट और धिरकते हुये गाने। इन दोनों चींजों की मोहनदास फिल्म में बिलकुल भी गुजाईश नहीं थी। नये कालाकार का फिल्म में होना कई बार चमत्कार दिखा देता है जैसे सत्या में मनोज़ वाजपयी नें दिखाया था और कई बार स्थापित कलाकार फिल्म की कहानी पर इस कदर हावी हो जाते हैं कि वह कहानी दब जाती है और पूरी फिल्म में कलाकार ही छाया रहता है। कॉमर्शियल फिल्म होते हुये भी मोहनदास कलात्मक फिल्म की तरह ही मास की नहीं क्लास की फिल्म बन कर रह गयी है जो सिर्फ अंतर्राष्टरीय फिल्म समारोहः में वाहवाही बटोरने के लिये रह जाती है बस।
ढेरों की तादाद में बन रही फिल्मों में दर्शकों को लुभाने के लिये कई तरह की मसाला डाला कर पेश किया जा रहा है और गाँधी को भी गाँधीगीरी के मसाले में अच्छी तरह लपेट कर परदे पर बेचा जा रहा है। ज़माना बेहतर पैकेज़िग का है फिर चाहे भीतर का माल रद्दी ही क्यों ना हो। मोहनदास में यही कमी रह गयी, अंदर की स्टोरी अच्छी थी पर पैकेज़िग खराब। स्टार कास्ट दर्शकों को अपनी ओर आकर्षित करने वाली नहीं थी। दुसरा फिल्म के शीर्षक "मोहनदास" को लेकर भी दर्शकों पशोपेश में थे। "मोहनदास" शीर्षक से सभी के दिमाग में कहीं ना कहीं महात्मा गांधी की छवि ही लोगो के दिमाग में बनती रही और यह कटु सत्य है कि संसार की चंद महान हस्ती में शामिल गाँधीजी भी आज के समय में बिना गाँधीगीरी के चालू फोर्मुले के नहीं बिकते। बज़ारवाद के इस प्रैक्टिकल समय में मोहनदास जैसे गंभीर विषय पर एक बेहतरीन फिल्म बनते बनते रह गई या बनाते बनाते रह गयी। यानि सदभावनाऐं बहुत भली थी पर मामला किन्हीं कारणों से जमा रहता है। हर उपन्यासकार अपने उपन्यास पर फिल्म बनाते हुये उन दर्शकों को भी अपने साथ जोडना चाहता है जो हिंदी साहित्य को पढने में ज़रा भी रूचि नहीं दिकाता। पर युवा वर्ग को मोहनदास फिल्म अपने पास नहीं खींच पायी, सबसे पहले तो को सिनेमाघरों की ओर खींच लाने का मादा होना चाहिये और उसके लिये चाहिये चमकली- भडकीली स्टार-कास्ट और धिरकते हुये गाने। इन दोनों चींजों की मोहनदास फिल्म में बिलकुल भी गुजाईश नहीं थी। नये कालाकार का फिल्म में होना कई बार चमत्कार दिखा देता है जैसे सत्या में मनोज़ वाजपयी नें दिखाया था और कई बार स्थापित कलाकार फिल्म की कहानी पर इस कदर हावी हो जाते हैं कि वह कहानी दब जाती है और पूरी फिल्म में कलाकार ही छाया रहता है। कॉमर्शियल फिल्म होते हुये भी मोहनदास कलात्मक फिल्म की तरह ही मास की नहीं क्लास की फिल्म बन कर रह गयी है जो सिर्फ अंतर्राष्टरीय फिल्म समारोहः में वाहवाही बटोरने के लिये रह जाती है बस।
मोहनदास की कहानी भीतर तक हिला देने वाली कहानी है,अपने ही देश में अपने को ही खो देने की कहानी। एक होनहार युवक की भयावह परिस्तिथिओं के शिकार होने की कहानी। गाँव के एक बाँस की चीज़ें बनाने वाले परिवार के होनहार युवक की कहानी, जिसके प्रमाणपत्र के बल पर एक नाकाबिल युवक ऊँचे ओहदे वालों की मदद से कई साल मोहनदास के नाम पर नौकरी करता रहा। इस बात की जानकारी मिलने के बाद, काफी कोशिशों के बाद भी मोहनदास को कुछ नहीं मिलता। मोहनदास एक ऐसे सच को रेखा को रेखाकिंत करती है, जो हमारे इसी तथाकथित उदारवादी समाज का सच है। सामाजिक धुंधलके के बीच जो कुछ भी साफ नज़र आता है वह निराशा में डाल देता है। हमें एक साथ ढेर सारे अज़गर फुक्कारते हुये मिलते हैं। लोकतंत्र की बुनियाद जिन अधारभूत तत्वों पर रखी गयी थी वे समय के साथ एक-एक करके धराशायी होते चले गये और हम लोकतंत्र के मलबे पर बैठे सिर्फ लोकतंत्र की बात करने के लिये बैठे हुये दिखाई पडते हैं।
यूँ तो जीवन अपने झोले में कई सच का भारी सामान ले कर चलता है पर सभी सच, समय रहते प्रकाश में आ जाये यह जरूरी भी नहीं। जीवन के ऐसे ही एक छुपे हुये सच को हिंदी के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर उदय प्रकाश अपनी कलम से उकेरते हैं और उस पर बन कर तैयार होती है, फिल्ममोहनदास, जो कागज़-कलम-दवात से ले कर कैमरा-रील-परदे तक का सफर तय करती है। ऐशो आराम से जीने वालों के साथ कभी ऐसी दुर्घटना नहीं घटती, ऐसे भयानक सच का सामना तो बेबस, बरीब, मज़लुम ही करते हैं। हम मध्यमवर्गीय लोग साधारणता के सिद्धांत का पालन करते हुये क्रमवार सुविधासंपन्न जीवन जीते चलते है। हमारे सपने भी सिर्फ हमारे ही हितों के इर्द गिर्द घुमते है।
आज सच पर फतेह करने के नये नये तरीके इज़ाद किये जा रहे हैं। जर-जोरू-ज़मीन पर कब्जे की बाद अब साबूत के साबूत इंसान के अस्तित्व पर कब्जा किया जा रहा है और हमेशा कि तरह सब जानते है सच क्या है, गाँव जानता है, वकील जानते है, मीडिया जानता है, संतरी से लेकर मंत्री तक सब जानते है पर सब चुप हैं। हम सब चुप हैं क्योंकि हमने अपने आप को मान लिया है कि हम कमज़ोर हैं और चुप्पी ही हमारी लाठी है। दिन रात खटने के बाद जिनके पास थकान के आलावा कुछ नहीं रहता। एक नाम तो उनहें उनकें वजुद के साथ जुड कर मिला है पर नहीं, कुछ लोग तो उनकें बदन के एकमात्र लंगोटी और आत्मा के साथ जुडा हुआ उसका नाम भी छीन लेना चाहते है, बल्कि छीन लेते हैं वो भी छाती तान कर। हालात से परेशान हो कर मोहनदास अपनेआप को कमरे में बंद कर लेता है, बहुत कोशिशों के बाद मोहनदास अपने आप को कमरे की गिरफत से मुक्त करता है तब वह रिपोर्टर मेघना से पुछता है कि पुछिये क्या पुछना चाहती हैं आप, तब लगता है कि हर संवेदनशील इंसान स्वयं से यह पूछ रहा है कि यह मैं कैसे बता सकता हुँ कि कि सच और झुठ की लडाई में सच कैसे हार गया कि सीधे इंसान का रास्ता इस दुनिया से बाहर की तरफ क्यों है कि जब सब कुछ छीना जा चुका हो, तो हम जिंदा की श्रेणी में क्यों हैयही ना हमारा सफाया करने वालों की जडे कौन मज़बूत कर रहा हैसभी सवालों का सीधा सा उत्तर है और वह उत्तर साफ भी है फिर भी इतने सवालों की गोली भी प्रताडितों पर और जो इन सवालों के लिये जिम्मेदार हैं वे सभी सवालों से परे हैं। हम चाहे दो रोटी, एक चादर से पूरी जिंदगी गुजार लें पर हमारा नाम, हमारी पहचान तो हमारे पास है ना। पर यदि कोई हमारे नाम पर ऐश करे और हम अपने जीवन की तमाम दुशवारियाँ झेलता रहे, यह कहाँ का न्याय है।मोहनदास ऐसी कहानी है जो समाज के उस सच को आत्मसात करती है जो किसी दुसरी दुनियाँ की नहीं हमारी ही दुनिया की, बल्कि हमारे अगल-बगल, हमारे आगे-पीछे की कहानी है। जो एक इंसान के सहज मानवीय अधिकारों पर कुठाराघात करती है।
एक सीधे साधे किशोर की कहानी है जो अपनी प्रतिभा के बल पर अपने गाँव और बिरादरी का नाम रोशन करता है। उसी गर्व से उसकी आँखें चमकती हैं जो अपने आस पास की दारुण परिवेश से ऊपर उठ कर अच्छे जीवन की कामना करता है। पर हालात कुछ इस कदर करवट लेतें हैं कि होनहार और सीधा साधा मोहनदास बैठ कर दुनिया का तमाशा देखता है चुपचाप। गाँव अन्नूपूर के बाँस की लकडी का काम करने वाले मोहनदास बी ए उच्च श्रेणी से पास करता है। हर ओर वाहवाही है, लगता है अब सब कुछ बेहतर होगा। एक आशा बंधती है। मोहनदास की नियुक्ती एक खादान में मैंनेजर के पद पर होती है। वह खुशी-खुशी घर आता है। दिन बितते जाते है, तीन महीने हो जाते हैं शहर से नौकरी का कोई बुलावा नहीं आता फिर एक दिन जाकर वह पता करता है तो उसे धक्के मारकर निकाल दिया जाता है। बाद में पता चलता है उसके सारे प्रमाणपत्र किसी और को दे दिये हैं जिसके बल पर वह नौकरी कर रहा है। उसे मजबुरन अपना बाँस के अपने पुशतैनी काम पर लगना पडता है।फिल्म में पह वाक्या भी यह सोचनें पर मजबुर करता है कि मीडिया की नज़र में हर चीज़ सनसनी है, भूख सनसनी है, आँधी तुफान बाढ सनसनी है, बिना सनसनीखेज़ बनाये खबर बिकती नहीं है। पर टी वी चैनल पर काम करने वाली मेघना के नज़दीक यह महज़ एक खबर नहीं है बल्कि एक हैरत कर देने वाली दास्तान है, जिसकी तह में जाने के लिये वह अन्नूपूर गाँव जाती है। वहाँ मिलता है एक जूनूनी वकील हर्षवर्धन। वह केस लडता है और ईमानदार जज है नाम है, गजानान माधवमुक्तिबोध। वह काबिल जज भी यह कहता है कि सच को देखना इतना मुशकिल नहीं है, मतलब हम झूठ के आगे हम सभी नतमस्तक हैं। ज़ाहिर है अब सफेदपोशों का जमाना है। वे ऊपर से इतने साफ और उजले दिखाई देते हैं कि उनके आस पास के दाग छिप जाते है। फिल्म में सबसे खतरनाक अंत है जहाँ नायक यह कह कर किवाड बंद कर देता है कि यहाँ मोहनदास नाम का कोई आदमी नहीं रहता यानि वह खुद अपनेआप को अपनेआप से अलग कर देता है।
बडे परदे पर शोर शराबे, ऊछल कुद, बेहद नाटकीयता से भरी भडकीली फिल्मों के बीच, मोहनदास समाज के एक क्रूरसच का बेबाकी से सामना करती नज़र आती है। यहाँ सवाल मोहनदास के बाक्स आफिस की सफलता का नहीं है बल्कि एक बेहतरीन कृति के व्यापक विस्तार का है। यहाँ एक उम्मीद जनम लेती है कि अच्छी कहानी पर फिल्में बनने का सिलसिला बिना रूके लगातार चलता रहेगा।