हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा २३ अकटूबर में आयोजित महिला विमर्श पर चंदीगढ में आयोजित विशिष्ट अतिथि के रूप में आलोचक निमला जैन ने कहा समाज में महिलाओं की भिन्न भिन्न समस्याऐं हैं। समाजसेविका निमल दत्त ने कहा महिलाओं की दशा अभी भी शोचनीय है। केवल कुछ महिलाओं की स्तिथी ही सुधरी है उससे ही हमें संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिये। मैत्री पुष्पा ने बेहद सहज ढंग से अपनी रचना प्रक्रिया और अपने बचपन के दिनों को वहाँ उपस्तिथ लोगों के साथ शेयर किया। प्रख्यात रोहिणी अगवाल ने कहा पराम्परागत प्रथाये अगर बेडियाँ बन जायें तो हमें उन्हें छोड देनी चाहियें। वहाँ साहित्य अकादमी के निदेशक देश निमोही, पदीप कासनी, कलम सिगं कूण्डु उपस्तिथ थे।अपहरान दो बजे कवियत्री सम्मेलन शुरू हुआ जिसमें रोजलिन, सुशीला, सरोज, नमिता राकेश, आशिमा कौल, विपिन चौधरी ने कविता पाढ किया।
जीवन के भीतर स्त्री
लम्बी चौडी जायदाद नहीं
एक घर चाहती हैं वे केवल
शायद पूरा घर भी नहीं
बस एक चुल्हा ताकि
घर भर को खिला कर
संतुष्ट हो, सो सके
कल के भोजन के बारें में
फिक करते हुये।
चाँद की कहानी कहते हुये वे चाँद पर जा पहुँचती हैं
अपनी कमनियता के किस्सों को
हवाओं में बिखरते हुये
कुछ न करते हुये भी
बहुत कुछ कर रही होती हैं वे
अपनी सृजनशीलता से रच रही होती है
स्वपनिले संसार की रूपरेखा
हमेशा बचाये रखा है उन्होनें
घर का सपना
आँधी तुफानों के बीच भी
जितनी शिद्दत से वे प्रेम करती है
उतनी ही शिद्दत से घृणा।
मासुमियता, उदारता, करुणा के विष्षणों के साथ
वे बेहद खूबसूरत दिखाई पडती हैं
कभी कभी वे सच के इतने करीब होती हैं
की छू सकती हैं अपनी आत्मा का पवितर जल
कभी वे बिना पक्षपात के इतनी झूठी हो सकती है
की आप दुनिया जहान से नफरत करने लगें
अपनी अनेकता के साथ
राधा, मीरा, सीता का बाना ओढती हैं
एक देश में अरृणा राय तो
दुसरे देश में सु कि
किसी तीसरे देश में शीरीन आबादी बन
अपने आप को सिदध कर रही होती हैं
उन्कें यहाँ हक्कीत और स्वपन में अधिक अंतर नहीं है
यही एकमात्र कारण है
हक्कीत को सपना और
सपने को हक्कीत समझनें में वे भूल कर देती हैं
जीवन का नब्बे प्रतिशत प्रेम
उन्के करीब से हो कर गुजरता है
उन्का साथ इन्दरधनुष, तितली, फुल, कविता,
खुश्बू, घटाओं और जिंदगी का साथ है
उन्की आखें जिस क्षण तुम्हारी ओर
देखती है वे क्षण ठहरे रहते हैं हमेशा
तमाम उमर तुम उन क्षणों के बीच से होकर
गुजरना चाहते हो तुम
कभी वे मुस्कुराहट बन
तस्वीर के चारों कोनों में फैल जाती हैं
तो कभी आँसुओं की तरह
शून्य में सिमट जाती हैं
स्त्री कभी बिखरती नहीं
अरबों खरबों अणुओं में जुडती नहीं
बिम्ब से मूरत में तबदील हो
माँ, बहन, बेटी बन जाती है
और कविता के अंदर
हमेशा जीवित रहती हैं
संवेदना बन कर।