शनिवार, 29 अगस्त 2009

मँहगाई


आज के इस वक्त में हमें
हमें कपडा, रोटी और मकान से ज्यादा
और भी कुछ चाहिये
पर मँहगाई के उतार चढाव के इस दौर में
कुछ ज्यादा मिलने की उम्मीद हमें नहीं है

हैरान परेशान होने के दिन अब लद गये है
हमने मान लिया है रुपया हमारा बाप है
और हमनें उसकी गुलामी स्वीकार कर ली है

हम धीरे धीरे चलते हैं
पर हमारे सपने हमसे भी तेज चलने का साहस रखते हैं
हमारे अधिकाधिक सपनें तो सिक्कों के सहारे खडे हैं
जब सिक्के गिरे तो सपने भी गिरे

जो सपने फक्कड थे वे चलते चले गये
हम समझ गये उनकी ज़मीनी हक्कीत
वे सपने चलते गये और दुनियादारी से
बाहर होते गये

कुछ लोग बाजार में खरीदने निकले
और मन मार कर खरीद भी लाये
वो भी खरीदने निकले
पर दाम सुन कर मायुस हो लौट गये

हमनें इस जग में बहुतों से
जीतने का दावा किया
पर बहुत कोशिशों के बाद भी
हम मँहगाई से जीत नहीं पाये।

6 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

मायूस लौटने वालों की फेहरिश्‍त दिनोंदिन लंबी होती जा रही है। इस सामयिक कविता के लिए बधाई।

Unknown ने कहा…

मायूस लौटने वालों की फेहरिश्‍त दिनोंदिन लंबी होती जा रही है। इस सामयिक कविता के लिए बधाई।

samjode ने कहा…

kya fakar ko bhi kuchh fikar karne
ki zrurat hai...

शेष ने कहा…

अरे..., आपका तो ब्लॉग भी है। उस पर दो-दो किताबों की सूचना। उसे तो बाद में पढ़ूंगा। लेकिन ये कविता तो मेरी बात कह गई...
शुक्रिया.

Noni ने कहा…

bahut hi sundar kavita..social insight

कुमार मुकुल ने कहा…

जो सपने फक्कड थे वे चलते चले गये
हम समझ गये उनकी ज़मीनी हक्कीत
वे सपने चलते गये और दुनियादारी से
बाहर होते गये
...हां सही कहा आपने