अम्मा ने सप्तम स्वर में पुकारा।
मैं ईटों पर बैठने लगी तो अम्मा छप्पर के भीतर जा कर एक टुटी हुई कुर्सी ले आयी।
याद दिलाने पर अम्मा पहचान जाती हैं की मैं कोहली साहिब के आफिस में नौकरी करने वाली स्मिती के सहेली हूँ। जब पहले पहल मैंने और स्मिती ने यहाँ चाय पीथी तब भी अम्मा इसी तरह बातों का पिटारा खोले हुए थी।
अम्मा तुम चाय तो अच्छी बनाती हो, पर बातें बहुत करती हो, स्मिती ने कहाँ था उस दिन।
तभी एक किशोरी छप्पर के छोटे से दरवाजे से झुक कर अपना चेहरा बाहर की तरफ निकालती है,
मैं उसे देखकर मुसकुराती हूँ।
उसके मासूम से चेहरे पर से पानी टपक रहा है, गीले बालों को लपेट कर जुडा बनाते हुऐ मुनिया थोडा झिझकते हुए मुस्कुराई।
यह मेरी बेटी रेखा की बेटी है, मुनिया, अम्मा बोली
फिर ज़रा जोर से चिल्लाते हुए अपनी बेटी को आवाज देने लगती है अम्मा।
गीता, ऐ गीता।
गीता छप्पर से कुछ दूर बने विशाल निर्माणाधीन बिल्डिंग के न जाने किस छोर से प्रकट होती है।
यह मेरी सबसे बडी बेटी है, अम्मा बोलती हैं।
इस तरह एक एक करके अम्मा ने अपने संबंधियों से मेरा परिचय करवा दिया। देखती हूँ सारा का सारा परिवार बेहद खूबसूरत मुस्कुराहट के साथ सामने आता हैसभी के चेहरे पर पारदर्शी स्नेह है।
जब अम्मा अपने परिवार वालों को बुला- बुला कर मेरा परिचय करवा रही थी उस पूरे परिचय वेला के दौरान रामभरोसे काका चुपचाप बैठे मंद मंद मुसकुराते रहे।
हम दोनों अकेले ही रहते है यहाँ, बच्चे आते जाते रहते हैं। कभी हम चले जाते है कानपुर अम्मा बताती हैं।
आज काका गैस के सामने बैठे थे सो चाय बनाने का जिम्मा आज अम्मा की बजाये काका का ही था।
पर अम्मा के दिशा-निर्देश के बिना चाय में उफान आना लगभग असंभव था।
छालनी साफ कर पहले।
चीनी आधा चम्मच और डाल दे।
फिर अम्मा कपडे से ढके भगोनो पर से कपडा हटा कर दिखाने लगी,
ये देखो इस पतीले में पानी मिला दूध है और दूसरा भगोना दिखाते हुए कहती हैं, यह देखो इसमें खालिस दूध है। सुबह पाचँ-छः किलो दूध लेती हूँ सारे दिन की चायके लिये।
कितने साल से दिल्ली में हो अम्मा जी, मैं पूछती हूँ।
कानपुर से सात साल पहले आये थे यहाँ दिल्ली। पहले यहीं कोहली साहब के प्लाट की चौकीदारी करते थे अब इस बिल्डिंग की चौकीदारी करते हैं, कई सालों सेमुकदमा चल रहा है इस जमीन पर।
कानपुर आना जाना लगा रहता है, पाँच बेटियाँ और दो बेटे हैं, सभी का ब्याह कर दिया है।
दोनों बेटे गाँव में है, खेती करते हैं। थोडी बहुत ज़मीन है वहाँ पर ।
इलायची भी डाल दो, छोटे डिब्बें में है, बोरी के नीचें, बातें करते करते अम्मा जी की एक आँख चाय पर थी।
रामभरोसे काका फर्श पर ईंट के टुकडे से ईलायची को पिसते हैं।
कप से बिना पानी मिला दूध छोटे पतीले से निकालते हैं।
पता नहीं अम्मा के बिना पानी मिले दूध की चाय किन किन लोगों को नसीब होती है।
थोडा ठीढ होकर मैं यह पूछ सकती थी।
पर शायद अम्मा इस प्रश्न पर झेंप जाती, यह सोच कर मैं चुप्प रही।
तभी गरम लू तेज़ी से आती है छप्पर पर बिछा पोलिथीन फडफडाने लगता है, अम्मा के सिर पर रखा दुप्पटा नीचें गिर जाता है। उसे सिर पर फिर से ओढ कर वहकहती हैं, गरमी बहुत है आज, जाने तो ओर भी गरमी तेज़ होगी।
दिन के वक्त छप्पर के नीचें तो रहा नहीं जाता है। यही इस अधूरी बिल्डिंग में ही खाट डाल रखी हैं।
अपनी सहेली स्मिती की बदौलत पहली बार अम्मा जी की हाथों बनी चाय पी थी और आज छः महीने बाद चाय पीने के लिए मैं एक बार फिर अम्मा जी के पास हूँ।
इन छः महीनें में ओखला के इन्डस्ट्रियल एरिया फेस-१ में काफि कुछ बदला होगा। कई नई ईमारतों की नींव रखी जा चुकि होगी। इन्हीं छः महीने दौरान ही स्मिती के पति विदेश से लौट आये है और वह पति के साथ गृह्स्थी बसाने पटना चली गयी है।
उसी के काम से आज यहाँ ओखला में आना हुआ है।
कोहली साहब के आफिस में अब हमारे यहाँ से चाय नहीं जाती, काफी बनाने की मशीन रख ली है उन्होनें। पर कभी-कभी मन करता है तो मँगवा लेते है, कहते है कि जो बात तुम्हारी चाय में है वह मशीन की चाय में नहीं है। अम्मा जी बडी खुश हो कर बताती हैं।
कोहली साहब कहते है तुम्हारी चाय का स्वाद मेरी जाड को भा गया है। रामभरोसे काका अपनी बात जोडते है।
उन दोनों से बात करके एक लगाव होता है जो लगाव सीधे-साधे लोगों के साथ ही हो सकता है। तब गाँव याद आता है जो शहर जैसा मतलबी नहीं होता, जहाँ किसी से भी राह चलते बात की जा सकती है बिना किसी स्वाथ के ।
अम्मा के परिवार का गुजारा बहुत थोडे में हो जाता है। पानी पडोस की दुकान से ले आते है। बिजली है नहीं इसीलिए उसके आने जाने की चिंता भी नहीं करनी पडती।
तीन हज़ार मिलते हैं चौकीदारी से और थोडा बहुत चाय से भी आमदनी हो जाती है। गुज़ारा हो रहा है बस रामभरोसे काका बताते हैं।
यहाँ दूर दूर तक कोई चाय और दूसरी खाने पीने की दुकाने नहीं हैं। नज़दीक ही एक पाँच सितारा होटल जरूर बन रहा है। बहुत बडी-बडी इमारतों के बीच, अम्मा की छोटा सा छप्पर इंडिया और भारत का अंतर साफ दिखा रहा
हैं। अमीरी में ऐश करती दुनिया और गरीबी को झेलती दुनिया का जीता जागता, सांस लेता हुआ उदाहरण मैं यहाँ से देख पा रही हूँ।
कहते है अमीर लोगो द्वारा बेकार समझ कर फैके हुई चीज़ों से गरीबों को थोडी सहायता मिल जाती है, वैसे ही इस इमारत के ना बन पाने तक रामभरोसे काका और अम्मा की बसर हो रही है। ऐश करती शायद यहाँ न मिले जैसे ही यह इमारत पूरी तरह बन कर माल के रूप में तैयार हो जायेगी तब रामभरोसे काका जैसे धोती पहनने वाले और दांत टूटने से स्पष्ट न बोल सकने वाले इंसान को चौकीदार की नौकरी या पानी पिलाने वाले की नौकरी भी शायद यहाँ न मिले। तब तो डैस वाला दरबान और साफ सुथरे कपडे पहनने वाला नौकर चाहियेगा इस माल में।
तभी दो लोग वहाँ आ चाय पीने आ जाते है।
मैं अम्मा, काका से विदा लेती हूँ। अम्मा कहती हैं, सीधी बस यहाँ से नहीं मिलेगी आटो से जाने की बजाय शेयरिग बेसिस वाला आटो ले लेना, पाँच रूपये लेगा नेहरू पलैस तक वहाँ से मेडिकल की बस मिल जायेगी।
जो लोग अपने अमीरी के नशे में टेडी निगाहों से अम्मा के छप्पर को देख कर नाक की सीध में चले जाते है या वे लोग जिनके पास इधर देखने का भी समय नहीं है, सचमुच में वे बडे अभागे लोग है जो जीवन की उस मिठास से वचिंत है जो केवल छप्पर के नीचें बैठी अम्मा के हाथों बनी चाय में ही हो सकती है।
उस दिन अम्मा की इलायची वाली चाय पीने के बाद पूरे दिन चाय बनाने का भी मन नहीं हुआ यह उनकी चाय में मिली सादगी थी जिसकी मिठास सदा के लिये कायम रहेगी मेरे भीतर।
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