
यह जीवन जब
सत्य कथा के नजदीक जा पहुँचा
तब यकायक साफ हुयी 
कई धुधंली पडी हुई चीजें
फिर देखा
जीवन का विन्यास
इतना लम्बा चौड़ा है
पर इसके आहते में
मेरा कितना सामान 
समेटा जा सकेगा  
पर अब मेरे नजदीक 
यह रहस्य नहीं रहा की
जीवन का गोल
चेहरा टटोल लेनें के लिये
दसों ऊँगलिया चाहियें 
साबूत की साबूत
बसंत तो कभी पत्झर,
अंधेरा तो कभी उजाला,
आँसू तो कभी मुस्कान,
मेरी यह अंजुरी कभी भी
खाली नहीं रही
जिस जीवन के साये तले मैं
सांस लेने का दंभ भरती रही हूँ
वह खुद भाग दौड कर
अपनी जगह सुनिस्चित करने में 
जुटा हुआ है
फिर भी जीवन और मृत्यु के 
अंतराल के बीच
सार्थक करना है 
मुझे स्वयं को
यही कारण है कि मैं
इन पंक्तियों के लिखें 
जाने तक मैं जीवन को जीने की
भरपूर कोशिश में हूँ।
 
5 टिप्पणियां:
फिर देखा
जीवन का विन्यास
इतना लम्बा चौड़ा है
पर इसके आहते में
मेरा कितना सामान
समेटा जा सकेगा
bahut behatrin
जीवन की क्षणभंगुरता के बीच अद्भुत जिजीविषा को रेखांकित करती कविता .समय के संघर्ष और जीवन के जद्दोजहद को जिस सादगी से उभरा गया है वह nishchit ही प्रसंशनीय है .एक अच्छी कविता हेतु बधाई.
पर अब मेरे नजदीक
यह रहस्य नहीं रहा की
जीवन का गोल
चेहरा टटोल लेनें के लिये
दसों ऊँगलिया चाहियें
साबूत की साबूत
बहुत ही सुंदर भावाभिव्यक्ति है
अच्छी कविता!
bhut badhiya.
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