शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

जीवन और मैं


यह जीवन जब
सत्य कथा के नजदीक जा पहुँचा
तब यकायक साफ हुयी
कई धुधंली पडी हुई चीजें

फिर देखा
जीवन का विन्यास
इतना लम्बा चौड़ा है
पर इसके आहते में
मेरा कितना सामान
समेटा जा सकेगा

पर अब मेरे नजदीक
यह रहस्य नहीं रहा की
जीवन का गोल
चेहरा टटोल लेनें के लिये
दसों ऊँगलिया चाहियें
साबूत की साबूत

बसंत तो कभी पत्झर,
अंधेरा तो कभी उजाला,
आँसू तो कभी मुस्कान,
मेरी यह अंजुरी कभी भी
खाली नहीं रही
जिस जीवन के साये तले मैं
सांस लेने का दंभ भरती रही हूँ
वह खुद भाग दौड कर
अपनी जगह सुनिस्चित करने में
जुटा हुआ है

फिर भी जीवन और मृत्यु के
अंतराल के बीच
सार्थक करना है
मुझे स्वयं को

यही कारण है कि मैं
इन पंक्तियों के लिखें
जाने तक मैं जीवन को जीने की
भरपूर कोशिश में हूँ।



5 टिप्‍पणियां:

मोहन वशिष्‍ठ ने कहा…

फिर देखा
जीवन का विन्यास
इतना लम्बा चौड़ा है
पर इसके आहते में
मेरा कितना सामान
समेटा जा सकेगा

bahut behatrin

Brajesh Kumar Pandey ने कहा…

जीवन की क्षणभंगुरता के बीच अद्भुत जिजीविषा को रेखांकित करती कविता .समय के संघर्ष और जीवन के जद्दोजहद को जिस सादगी से उभरा गया है वह nishchit ही प्रसंशनीय है .एक अच्छी कविता हेतु बधाई.

नवनीत पाण्डे ने कहा…

पर अब मेरे नजदीक
यह रहस्य नहीं रहा की
जीवन का गोल
चेहरा टटोल लेनें के लिये
दसों ऊँगलिया चाहियें
साबूत की साबूत

बहुत ही सुंदर भावाभिव्यक्ति है

उत्‍तमराव क्षीरसागर ने कहा…

अच्‍छी कवि‍ता!

richa ने कहा…

bhut badhiya.