लेखन का रोग जब नया नया ही लगा था उस समय नामचीन लेखको से पत्र व्यवहार करने का जुनून जहन मे सवार था. अपने लिखे पत्रों के जवाब का लम्बा इंतज़ार रहता . उनके जवाबी पोस्टकार्ड मे लिखी पंक्तियाँ काफी दिनों तक याद रहती. उस दौर मे श्री विष्णु प्रभाकर, निर्मल वर्मा, ज्ञानरंजन, लीलाध्रार जगूड़ी, नीरज, रमेशचंद्र शाह, गिरिराज किशोर, भगवत रावत, स्वदेश दीपक, शेखर जोशी, कन्हईयालाल नंदन, अलोक मेहता, चित्रा मुदगल, चंद्रकांता, हिमांशु जोशी के साथ पत्र व्यवहार चला. जिनमे विष्णु प्रभाकर, स्वदेश दीपक और निर्मल वर्मा जी से बहुत कुछ सीखा और इन तीनों से लम्बा पत्र व्यवहार जब तक यह तीनों लेखक हमारे बीच से चले नहीं गए. इन तीनों माननीय लेखको के ढेरो पोस्टकार्ड मेरे पास सुरक्षित हैं जिन्हे पढ़ कर हर बार नई उर्जा मिलती है. इसी क्रम मे २००५ को श्रीलाल शुक्ल को उनका प्रशिद्ध रागदरबारी पढ़ कर एक पोस्ट कार्ड लिखा था जिस के जवाब मे उनका यह जवाबी पोस्टकार्ड आया.
इसमे वर्णित चंद पंक्तियों मे ही लेखक की निराशा झलकती है. लेखक अपने लेखन से संतुस्ट नहीं दिखते यह निराशा किन कारणों से है. आज मे इस सोच मे हूँ कि उनके जाने के बाद ही हम क्यों उन्हे महिमामंडित करते हैं उनके जीते जी उन्हे खुशनुमा वातावरण क्यों नहीं देते जिनके वे हक़दार है.
समाज एक लेखक को निराशा भरा वातावरण क्यो देता है . जबकी लेखक समाज का ही सटीक चित्रण कर रहा होता है और वो सच्चाई भी वह अपने लेखन मे प्रस्तुत करता है जिसे हम आम तौर पर नज़र अंदाज़ कर गुज़र जाते हैं.
एक लेखक के लिये सामाजिक प्रोत्साहन का आभाव इस कदर क्यों है. जबकी श्रीलाल शुक्ल ढेरो रचनाओ के साथ एक कालजयी उपन्यास रागदरबारी दुनिया को दे चुके हैं.
यह एक विचारणीय प्रशन है जिसका जवाब हमारे ही पास है.
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