( हरियाणवी कविता )
न्यू क्युकर
मीं बरसा और छाती मह हूक सी ना उट्ठी
बारणा गाडण जोग्या
मोरणी सा कोनी नाच्या
ईब काल भादों मैं सीसम ना हांसी
ना इंडी हाथां तैं छूट भाजी
जंगले पह खड़ी मैं बासी
आँख्यां तैं लखान लागी
लुगाइयां का रेवड़
घाघरां पाछै लुख ग्या
बखोरे में गुलगुले ना दिखे
ना टोकणी बाजी
बेरा कोणी या
धक्कम-धक्का किस बाबत प होरी सै
धक्कम-धक्का किस बाबत प होरी सै
ऊँटनी का यो
मोसम कढ जव्गा
नई बहु पींघ ना चढ़ी
ना छोटी ने सिट्टी बजाई
ना नलाक्याँ पर होई लड़म -लड़ाई
ना ताऊ ने ताई के खाज मचाई
ना गंठे- प्याज की शामत आई
न्यू क्युकर
मीं बरसा और फ़ौजी छुटटी प न आया
कढाव्णी में दूध उबलन लाग्या
चाक्की के पाट करड़े होगे
इस मीं के मौसम नें इस बार खूब रुआया
खूब रुआया अर जी भर कीं रुआया
बीजणा भी ईब सीली बाल कोनी देनदा दिखय
ऊत का चरखा भी इब ढीठ हो गया
सूत कातन तह नाटय स
सीली बाल सुहावै कोनी
मी का यो मौसम इब जांदा क्यों नी
5 टिप्पणियां:
जितना समझ में आया बहुत मज़ा आया ...
ye bahut sunder kavita hai.
चलिए कम से कम आपने लिखना तो शुरू किया हरियाणवी में... और इतनी अच्छी शुरुआत...मज़ेदार है।
आपने तों कटी लट्ठ गाढ़ दिया ....जय हो
vipni ji sahi me latth hi gad dia...andi rachna hai ye...
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