रविवार, 27 अप्रैल 2008

कोलकाता से लौटकर






कोलकाता महानगर मेरे लिये हमेशा से ही आकर्षण का विषय रहा है। कोलकाता का नाम सुनकर जहन में सबके पहले विमल मित्र का वह पात्र याद आता है जो स्यालदाह रेलवे स्टेशन पर अपना भाग्य आजमानें के ऊदेश्य से कोलकाता आता है। इसके अलावा मेरी कई पसंदीदा शख्सियतों जिनमें स्वामी विवेकानंद, सुभाष चंद बोस, गुरूदेव रविन्द्र नाथ ठाकुर, सत्यजित राय, शरत चंद चटोपाध्याय, विमल मित्र का जन्म स्थान भी कोलकाता है। कोलकाता के लोगों का साहित्य, संस्कृति के प्रति रुझान आदि के बारे में भी बहुत कुछ पढा सुना था। वहाँ जाने का सौभाग्य उपलब्ध करवाया भारतीय भाषा परिषद की पत्रिका वागर्थ द्वारा आयोजित वर्ष २००७ नवलेखन कविता प्रतियोगिता ने। कोलकाता के बेहद खूबसूरत वातावरण, कविता का सम्मान और नये कवि दोस्तों के साथ ने एक अदभुत माहौल बना दिया था। दो दिन के इस कार्यक्रम में हम सभी कवियो ने एक दिन के सफर की थकान ऊतारी और दुसरे दिन
कोलकाता के बाजारों, ईडन गाडन और विकटोरिया पैलेस के दर्शन भी किये। भारतीय भाषा परिषद के भवन के तीसरी मंजिल पर केवल दो दिन की वो गतिविधियों हम सभी को ताउम्र याद रहेगी। हम सभी भारत के कोने कोने से कोलकता पहुचें थे। बलराम कांवट राजस्थान से, अमित परिहार इलाहबाद से, अलिंद वाराणसी से, मैं हरियाणा से, अच्युतानंद दिल्ली से, पुशपेंद फालगुन नागपुर से, नताशा बिहार से, ज्ञान प्रकाश वाराणसी से आये थे। दो दिन के इस कार्यक्रम में हम सभी कवियो ने एक दिन के सफर की थकान ऊतारी। दुसरे दिन यानि २७ जनवरी २००८ को सुबह पुरस्कार वितरण समारोह परिषद की दुसरी मंजिल में आयोजित हुआ। जिसमे अमित परिहार को प्रथम पुरुस्कार मिला उनकी कविता दशरथ माझीं के लिये, दुसरा पुरुस्कार बलराम कावट को गढरिया के लिये, तीसरा पुरस्कार अच्युतांन्द को उनकी कविता आँख में तिनका या सपना के लिये दिया गया साथ ही चार प्रेरणा पुरस्कार भी दिये गये जिसमें ज्ञान प्रकाश को, मिथिलेश राय को ईश्वर की आँख के लिये, नताशा को वह तोडती पत्थर के लिये अलिंद उपाध्याय को घंटी, विपिन चौधरी को पुलिया पर मोची के लिये पुष्पेन्द्र फाल्गुन को सो जाओ रात के लिये दिया गया। छविनाथ मिश्र द्वारा पुरस्कृत कवियो को शाल उठा कर सम्मानित किया गया और बाद में पुरस्कृत कवियों द्वारा समाज को बेहतर बनाने में साहित्य की भूमिका पर संशिप्त वक्तव्य दिया गया। श्री छविनाथ मिश्र द्वारा अध्यक्षीय भाषण हुआ। सम्पूर्ण कार्यक्रम का संचालन वागर्थ संपादक एंकात श्रीवास्तव ने किया और दुसरे दिन कोलकाता के बाजारों, ईडन गार्डन और विकटोरिया पैलेस के दर्शन भी किये, फिर रात को लौटकर हम सभी कवियों ने देर रात तक कविता और गीत संगीत की महफिल सजाई। अगले दिन हम सभी लौट आये कोलकता से अमुल्य यादों को समेट कर।
प्रस्तुत है वागर्थ द्वारा आयोजित कविता प्रतियोगिता में पुरुस्कृत मेरी कविता


पुलिया पर मोची

यह पुलिया जाने कब से है यहाँ
और पीपल के नीचे बैठा यह मोची भी
न पेड की उम्र से
मोची की उम्र का पता चलता है
न मोची की उम्र से पेड का
और न पानी की गति का
जो पुल के नीचे
बिना लाग लपेट बहता है

जब बचपन में इस पुलिया पर से गुजरते हुये
चलते चलते थक जाने पर
माँ की गोदी के लिये मचलती थी
और इस पुलिया में अपनी परछाई
देख खुश होती थी
तब भी यहीं मोची
जूते गाठंता दिखता था
तब पुलिया का
मोची का
इतना आकर्षण नहीं था
बचपन कई दुसरी ही चीजों
के लिये बना है

उसके कुछ वर्षो के बाद
कालेज जाने का एकमात्र रास्ता भी
इसी पुलिया से होकर गुजरा
तब जीवन की बारीकियों के बीच
मोची से मानवीयता के
तार जुडे तो सोचा
क्या यह मोची गरदन झुकाये
इसी तरह बैठे रहने के लिये जनमा है
दुनिया की यात्राऐं कभी खतम नहीं होती
पर यह मोची तो मानों कभी कदम भर भी
न चला हो जैसे

अब जब
दुनियादारी में सेंध लगाने
की उम्र में आ चुकि हुँ
तो भी पुलिया वहीं मौजुद है
वहीं मौजुद है मोची
अपने पूरी तरह रुई हो चुके बालों के साथ

बचपन से अब तक
उम्र के साथ-साथ
आधुनिक्ता ने लम्बा सफर
तय किया है
उसके पास तो वो ही
बरसों पुरानी
काली, भूरी पालिश है
चमडे के कुछ टुक्डे और
कई छोटे-बडे बुश
सिर पर घनी छाया
थोडी झड गयी है और
पुल का पानी जरुर कुछ कम हो गया है
पर जिदंगी का पानी
आज भी उस मोची के
भीतर से कम हुआ नहीं दिखता


शहर का सबसे सिध्हस्त मोची होने का
अहसास तनिक भी नहीं है उसे
हजारों कारीगरो की तरह ही
उसके हुनर को कोई पदक
नहीं मिला
बल्कि कई लोग तो यह भी सोच
सकते हैं
कि यह भी कोई हुनर है
फटे जूतों को सिलने का
पर भीतर ही भीतर जानते है
वे यह हकीकत की
फटे जुतों के साथ चलना
कितना कठिन है
यह बात अलग है कि
वे अब डयूरेबल जूतें पहनने लगे हैं


यह मोची, पीपल, पुलिया और बहते हुये पानी के
तिलिस्म की कविता नहीं है
यह सच्चाई है
जो केवल और केवल
कविता की मिटटी में ही
मौजुद है


यह आज की नहीं
हमेशा की जरुरत है कि
पुल भी रहना चाहियें
मोची भी
पेड के नीचें बहता पानी भी
जिसमें अब कोई छवि पहले
की तरह साफ नजर नहीं आती

4 टिप्‍पणियां:

Manish Kumar ने कहा…

हमारी सामाजिक आर्थिक व्यवस्था ऍसी है जो दो जून रोटी के लिए संघर्षरत श्रमिकों को अपने रहन सहन के स्तर से ऊपर उठने नहीं देती। इस कविता को यहाँ बाँटने के लिए शुक्रिया।

आलोक ने कहा…

कविता अच्छी लगी।

Shastri JC Philip ने कहा…

यात्रा विवरण मुझे हमेशा अच्छा लगता है. आपका विवरण पढ कर आनंद आया!!

richa ने कहा…

aap ki kavita aur yatra vivran phad kar acha laga.