महानगरों में बढते प्रदूषण के कारण जनसाधारण की परेशानियाँ बढती जा रही है। हरित भूमि की कमी होती जा रही है। पिछले पाँच वषों में जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण में कमश ७८, ७६ की वृदि हो रही है। गंगा और यमुना में प्रदुषण गहराता जा रहा है। गंगा एकशन पलान को शुरू हुये कितने साल हो चुके हैं पर कोई ठोस नतीजा सामने नहीं आ सका है। महानगरों में करवाये जाने वाले सर्वेक्षण से पता चलता है कि सबसे ज्यादा वायु प्रदूषण हैदराबाद में है, जल और ध्वनि प्रदूषण बेगलूर में है। इसके अलावा जल की कमी महानगरों की सबसे बडी समस्या है। जल समस्या का सबसे बेहतर समाधान जल संरक्षण ही है।
महानगर पर एक कविता
महानगरों में बने रहते हैं हम
अपने आप को लगातार
ढुँढते हुये
महानगर के बोझ को
अपने कमजोर कंधों पर ढोते हुये
अभिमान से अभिज्ञान के लम्बे सफर में
बेतरतीब उलझे हुये हम
महानगर की धमक हमें
हर कदम पर
साफ सुनाई देती है
इसकी चाल में बडा बेरहम शोर है
वह घंटों अपने आप से ही बोलता बतियाता है
किसी जीवित शख्स के साथ
दो पल बतियाने का समय नहीं है उसके पास
हम महानगर के शयनकक्ष में आ गये हैं
यहीं अपने आप को पूरी तरह खोने का
सही सही मुआवजा लेगें
दूर तक बिखरी हुई उदासी से खुशी के
बारीक कणों को
छानते हुये
महानगर के सताये हुये हम
अपने गाँवों कसबों से
बटोर लायी हुई खुशियों
को बडी कँजूसी से खर्च करते हैं
महानगर के करीब आने पर हमें
अपने बरसों के गठरी
किये हुये सपनों को
परे सरका कर उसकी कठोर जमीन पर
नगे पाँव चलनें की आदत डालनी पडी है
उसके पास खबरों का दूर तक
फैला हुआ कारोबार है
पर जो महीन खबरें महानगर के पथरीले पाँवों के
नीचें आकर कुचली जाती हैं
वही हम सबके लिये बडी पीडा का
सबब बनती हैं
ये विशाल नगर
एक हाथ से देने में आना कानी
करते हैं पर
दोनों हाथों से छीनते हुये
जरा भी संकोच नहीं करते
अपनी अदभुत विशेषताओं के कारण
एक साथ कई रंग दिखाने में माहिर है महानगर
फलाई ओवर के नीचे से गुजरते हुये
एक रेडिमेड उदासी हमारे अगल बगल
हो लेती है
लम्बी चौडी इमारतें, मैट्रो हमें
तुम्हारी बादशाहत और
झोपडी हमें अपने फक्कडपन का
अहसास दिला देती है
तुम्हें लाघते हुये चलते चलना
अपने आप को
बडा दिलासा देना है
तुम्हारी चाल बहुत तेज है महानगर
पर तुम्हें शायद मालुम नही
एक समय के बाद
दौडते फाँदते, इठलाते खरगोश की
चाल भी मंद पड जाती है।
महानगर पर एक कविता
महानगरों में बने रहते हैं हम
अपने आप को लगातार
ढुँढते हुये
महानगर के बोझ को
अपने कमजोर कंधों पर ढोते हुये
अभिमान से अभिज्ञान के लम्बे सफर में
बेतरतीब उलझे हुये हम
महानगर की धमक हमें
हर कदम पर
साफ सुनाई देती है
इसकी चाल में बडा बेरहम शोर है
वह घंटों अपने आप से ही बोलता बतियाता है
किसी जीवित शख्स के साथ
दो पल बतियाने का समय नहीं है उसके पास
हम महानगर के शयनकक्ष में आ गये हैं
यहीं अपने आप को पूरी तरह खोने का
सही सही मुआवजा लेगें
दूर तक बिखरी हुई उदासी से खुशी के
बारीक कणों को
छानते हुये
महानगर के सताये हुये हम
अपने गाँवों कसबों से
बटोर लायी हुई खुशियों
को बडी कँजूसी से खर्च करते हैं
महानगर के करीब आने पर हमें
अपने बरसों के गठरी
किये हुये सपनों को
परे सरका कर उसकी कठोर जमीन पर
नगे पाँव चलनें की आदत डालनी पडी है
उसके पास खबरों का दूर तक
फैला हुआ कारोबार है
पर जो महीन खबरें महानगर के पथरीले पाँवों के
नीचें आकर कुचली जाती हैं
वही हम सबके लिये बडी पीडा का
सबब बनती हैं
ये विशाल नगर
एक हाथ से देने में आना कानी
करते हैं पर
दोनों हाथों से छीनते हुये
जरा भी संकोच नहीं करते
अपनी अदभुत विशेषताओं के कारण
एक साथ कई रंग दिखाने में माहिर है महानगर
फलाई ओवर के नीचे से गुजरते हुये
एक रेडिमेड उदासी हमारे अगल बगल
हो लेती है
लम्बी चौडी इमारतें, मैट्रो हमें
तुम्हारी बादशाहत और
झोपडी हमें अपने फक्कडपन का
अहसास दिला देती है
तुम्हें लाघते हुये चलते चलना
अपने आप को
बडा दिलासा देना है
तुम्हारी चाल बहुत तेज है महानगर
पर तुम्हें शायद मालुम नही
एक समय के बाद
दौडते फाँदते, इठलाते खरगोश की
चाल भी मंद पड जाती है।
4 टिप्पणियां:
"महानगर" नामक दैत्य पर बहुत सही अभिव्यक्ति! जो जी चुके हैं वे ही जानते हैं कि यह कितना सटीक विश्लेषण है !!
kavita ke jariye aapne mahanagron ki jis parkar vyakhya ki hai wo sarahniy hai. isi tarha ki kivta likhti rahain.
aapka mahanger kvita me mhanger ki smasyaon per jo vishleshn kiya gya h wo vakyi kabile tarif h...........
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