बुधवार, 14 दिसंबर 2011
नूर्नबर्ग परीक्षण”
शनिवार, 29 अक्टूबर 2011
जवाबी पोस्टकार्ड : लेखक श्रीलाल शुक्ल


 लेखन का रोग जब नया नया ही लगा था उस समय  नामचीन लेखको से पत्र व्यवहार करने का जुनून जहन मे सवार था. अपने लिखे पत्रों के जवाब का लम्बा इंतज़ार रहता . उनके जवाबी पोस्टकार्ड मे लिखी पंक्तियाँ  काफी दिनों तक याद रहती. उस दौर मे  श्री विष्णु प्रभाकर, निर्मल वर्मा, ज्ञानरंजन, लीलाध्रार जगूड़ी, नीरज, रमेशचंद्र शाह, गिरिराज किशोर, भगवत रावत, स्वदेश दीपक, शेखर जोशी,  कन्हईयालाल नंदन, अलोक मेहता, चित्रा  मुदगल, चंद्रकांता, हिमांशु जोशी के साथ पत्र व्यवहार चला. जिनमे विष्णु प्रभाकर, स्वदेश दीपक  और निर्मल वर्मा जी से बहुत कुछ  सीखा और इन तीनों से लम्बा पत्र व्यवहार जब तक यह तीनों लेखक हमारे बीच से चले नहीं गए. इन तीनों माननीय लेखको के  ढेरो पोस्टकार्ड मेरे पास सुरक्षित हैं जिन्हे पढ़ कर हर बार नई उर्जा मिलती है. इसी क्रम मे २००५ को श्रीलाल शुक्ल को  उनका प्रशिद्ध  रागदरबारी पढ़  कर एक पोस्ट कार्ड लिखा  था जिस के जवाब मे उनका यह जवाबी पोस्टकार्ड आया.
लेखन का रोग जब नया नया ही लगा था उस समय  नामचीन लेखको से पत्र व्यवहार करने का जुनून जहन मे सवार था. अपने लिखे पत्रों के जवाब का लम्बा इंतज़ार रहता . उनके जवाबी पोस्टकार्ड मे लिखी पंक्तियाँ  काफी दिनों तक याद रहती. उस दौर मे  श्री विष्णु प्रभाकर, निर्मल वर्मा, ज्ञानरंजन, लीलाध्रार जगूड़ी, नीरज, रमेशचंद्र शाह, गिरिराज किशोर, भगवत रावत, स्वदेश दीपक, शेखर जोशी,  कन्हईयालाल नंदन, अलोक मेहता, चित्रा  मुदगल, चंद्रकांता, हिमांशु जोशी के साथ पत्र व्यवहार चला. जिनमे विष्णु प्रभाकर, स्वदेश दीपक  और निर्मल वर्मा जी से बहुत कुछ  सीखा और इन तीनों से लम्बा पत्र व्यवहार जब तक यह तीनों लेखक हमारे बीच से चले नहीं गए. इन तीनों माननीय लेखको के  ढेरो पोस्टकार्ड मेरे पास सुरक्षित हैं जिन्हे पढ़ कर हर बार नई उर्जा मिलती है. इसी क्रम मे २००५ को श्रीलाल शुक्ल को  उनका प्रशिद्ध  रागदरबारी पढ़  कर एक पोस्ट कार्ड लिखा  था जिस के जवाब मे उनका यह जवाबी पोस्टकार्ड आया.शनिवार, 22 अक्टूबर 2011
अब मैं राशन की कतारों मे नज़र आता हूँ : जगजीत सिंह आम जनता के ख़ास गायक
 एक  दौर में ग़ज़ल नाम था एक दुरूह रचना का, जिसमे उर्दू के कठिन शब्दों का समावेश होता था, एक दूसरे दौर मे  जिन गायको की मार्फ़त ग़ज़ल की जुदा पहचान मिली उनमे  जगजीत सिंह का नाम सबसे ऊपर है. जगजीत सिंह ने ग़ज़ल को ख़ास क्लास से बाहर निकाल कर आमो ख़ास तक पहुँचाया, तब उन्होने निदा फाजली, दुष्यंत कुमार, बशीर बद्र के लेखन को अपनी बुलंद आवाज़ मे गाया l इन गजलो मे इंसानी जीवन के रोज़मर्रा के सुख दुःख जुडे होते थे. जिस से हम सभी अपने आप को जोड़ कर देखते थे. बानगी के तौर पर जगजीत सिंह द्वारा गयी गयी यह गजले.
एक  दौर में ग़ज़ल नाम था एक दुरूह रचना का, जिसमे उर्दू के कठिन शब्दों का समावेश होता था, एक दूसरे दौर मे  जिन गायको की मार्फ़त ग़ज़ल की जुदा पहचान मिली उनमे  जगजीत सिंह का नाम सबसे ऊपर है. जगजीत सिंह ने ग़ज़ल को ख़ास क्लास से बाहर निकाल कर आमो ख़ास तक पहुँचाया, तब उन्होने निदा फाजली, दुष्यंत कुमार, बशीर बद्र के लेखन को अपनी बुलंद आवाज़ मे गाया l इन गजलो मे इंसानी जीवन के रोज़मर्रा के सुख दुःख जुडे होते थे. जिस से हम सभी अपने आप को जोड़ कर देखते थे. बानगी के तौर पर जगजीत सिंह द्वारा गयी गयी यह गजले.सोमवार, 10 अक्टूबर 2011
जगजीत सिंह; ग़ज़ल गायकी का शाही अंदाज
मंगलवार, 5 अप्रैल 2011
फैज़ अहमद फैज़ के खत, दानिश इकबाल की आवाज़ और दुख का उजला पक्ष


''दुख और नाखुशी दो मुखतलिफ और अलग-अलग चीज़ें हैं और बिलकुल मुमकिन है कि आदमी दुख भी सहता रहे और खुश भी रहें"। ये पंक्तियाँ फैज़ अहमद फैज़ ने जेल की चारदीवारी में रहते हुऐ अपनी पत्नी को १५ सितम्बर १९५७ को लिखी थी। ख़त के माध्यम से दुनिया के सामने दुख का अनोंखा और उजला पक्ष रखने वाले फैज़ को आज हम उंनकी जन्म शताब्दी पर याद कर रहे है जिसके तहत देश भर में उन्हें अलग -अलग तरीके से उन्हें याद किया जा रहा है। राजधानी दिल्ली में भी फैज़ की याद को समर्पित कई कार्यक्रम आयोजित किऐ जा रहे हैं । इसी कडी में एक खूबसूरत कार्यक्रम बीती रविवार को इंडिया हबिटैट सेन्टर की खुली छत पर आयोजित किया गया। रंगमंच और रेडियो के दो दिग्गजों दानिश इकबाल और सलीमा राजा ने फैज़ के लगभग ३०-३५ खतों के सार पढ़े। जिस नाटकीय लय में दोनों ने फैज़ के लिखे को अपनी आवाज़ दी वह बेहद दिल ओ दिमाग को सुकून देने के साथ कानो मै भी शहद घोलने वाला रहा, लगभग ढाई घंटें वहाँ मौजुद लोग मुग्ध हो उन्हें सुनते रहे। उस समय पूरा माहौल फैज़मय हो उठा जब इकबाल बानो और शौकत खान जैसे महान गायकों द्वारा गई उनकी तीन गज़लें को भी सुनाया गया ।
१९५० के उस दौर में जब पूरा उपमहाद्वीप राजनीतिक अशांति से गुज़र रहा था, तब इस प्रबुद्ध दम्पति के ज़ीवन में क्या उधल पुधल चल रही थी इसका पता हमें उनके द्वारा लिखे इन पत्रों से मिला।  ये पत्र  जीवन को तिरछी नज़र से भी देखने का साहस दिखाते हैं।  फैज़ अपने पत्रों में अपनी पत्नि से बार-बार यह गिला कर रहे थे की उन्कें जेल मे रहने से उनहें घर और बहार दोनों की जिम्मेदारेयाँ संभालनी पर रही हैं।
जीवन के किसी मोड पर जब इन्सान का सामना दुःख से होता है तो वह लगभग विचार शुन्य हो जाता है। फैज़ के लिये उस खास घडी से उपजे दुःख के अलग मायने थे,  तब समझ मे आता है की दुःख को कितनी शायस्तगी से जीया था फैज़ ने। दुख से घबराने वाले और दुख में ढूब जाने वाले हम सतही चीज़ों पर ही विचार करते रह जाते हैं। पर कहतें हैं कि सामान्यता से ठीक उलट जीवन को बेहतर तौर पर जीने का रास्ता कोई विलक्षण बुद्धी  वाला ही खुल कर सामने रख सकता है और इसी सोच का सामने रखा फैज़ ने. 
फैज़ के पत्रों के जवाब में उनकी प्रबुद्ध ब्रिटिश पत्नी अल्यस फैज़ के जवाब भी उतने ही गहन और माकूल थे। ये सभी ख़त निजी होते हुऐ भी सामाजिक दृष्टी से महताव्पूर्ण है और जीवन को नयी दिशा दिखाने का काम करते है जब जीवन में सरे राह चलते चलते कई तरह की परेशानियाँ हमें घेर लेती हैं तो उस वक़्त में कैसे उनसे  पार पाया जा सकता है यह सोचने का विषय है। सबका दुख अलग-अलग होता है और दुख को देखने का नज़रिया भी। ज़ब हमारे लाख चाहते हुऐ भी जब कुछ अज़ीज चीज़ों की परछाई हमारे पास से बहुत दूर चली जाती हैं और जो चीज़े समय की तेज़ रफ़्तार में हमारे हाथ से छुट जाती है उनहें खोने का दर्द हमें बार बार सालता है । कुछ अति संवेदनशील लोगों के लिए दुख एक टानिक का काम भी करता है और यह भी सच है कि दुःख का वातावरण कला में पैनापन ले आता है तभी जब-जब भी समाज में बडे तौर पर  विपत्ति  आई है तब  कला भी सघनता से  उभर आई  है। जैसे दक्षिण अफ्रीकन देशों की त्रासदी, नाइजीरिया का गृहयुद्ध, भारत-पाक विभाजन, सोवियत-रुस का विखंडन आदि एक बडी त्रासदी के रूप में जब समाज में उभरी तो  कला मे पैनापन आया । नोबल पुरस्कार विजेता  ब्रिटिश लेखिका डोरोथी  लेंसिंग का मानना है "आँसू वास्तव में मोती हैं"  और असदुल्ला खान ग़ालिब भी कह गए है "दर्द के फूल भी खिलते है बिखर जाते हैं, जख्म कैसे भी हो कुछ रोज़ में भर जाते है" लेकिन फैज़ ने दुःख -दर्द  का जो मनोवाज्ञानिक विश्लेषण किया है वह बेमिसाल है। निजता बहुत अज़ीज़ चीज़ है मगर उससे इतना विस्तार देना भी ताकि  उससे बाकी लोग भी सबक ले सके, यह बडी बात है।
भावनाओं का सार,  खुशी का उत्साह, अवसाद की अकड़न, चिंता की चिंता, यह सब मस्तिक्ष में ख़ुशी औरउल्लास की भावनाओं की तरह ही एक आसमानी इंद्रधनुष की तरह से हैं जो क्षणभंगुर होता है। 
जहाँ तक शोधकर्ताओं ने मस्तिष्क की संरचना को खंगाला के बाद यह निष्कर्ष निकला  कि मस्तिष्क सिर्फ एक भावनात्मक केन्द्र नहीं है जैसा कि लंबे समय से यह माना जाता रहा है, बल्कि वहां अलग-अलग भावनाओं की सरंचना भी शामिल है। पुरुषों और महिलाओं के दिमाग मे सुख और दुख अलग- अलग तरह से असर डालते है। न्यू साउथ वेल्स विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान के प्रोफेसर जोसेफ फोरगस ने इस पर शोध कर यह परिंणाम निकाला कि नाकारात्मक  मूड में लोगों की रचनाशीलाता अधिक बढ़ जाती है। पीडा एक सार्वभौमिक प्रेरक तत्व है, जब हम पीडा में उलझे होते हैं तो इससे बाहर आने के उपाय खोजनें लगते हैं और इसके उबरने के  लिये अपनी गतिविधियाँ बढा देते हैं यह ठीक ऐसा ही  है जैसे दलदल में फसें होनें पर उस से बाहर  निकलनें के लिये हाथ-पाँव मारना। यह सच है जब हम दूर खडे होकर अपने दुख की अनुभूति को देखने, परखने और परिभाषित करने की शमता  विकसित करेगें तभी दुसरों के दुख में हमारी  भागीदारिता बढ सकेगी। इस मामले में कई संवेदनशील विभूतियों की तरह फैज़ भी धनी थे तभी  वे  दुख का सटीक विश्लेषण कर सके।
बहरहाल फैज़ अपने  इसी खत में आगे लिखते है
"दुख और नाखुशी दो मुखतलिफ और अलग-अलग चीज़ें हैं और बिलकुल मुमकिन है कि आदमी दुख भी रहता रहे और खुश भी रहें। दुख और ना-खुशी खारिज़े चीज़ें हैं जो हमारी या हादसे की तरह बाहर से वारिद होते है, जैसे हमारी मौजुदा जुदाई हैं। या जैसे मेरे भाई की मौत है ,,, लेकिन नाखुशी जो इस दर्द  से पैदा होती है अपने अंदर की चीज़ है ये अपने अंदर भी बैठी पनपती रहती है,,,और अगर आदमी एतीहात  ना करे तो पुरी शक्सियत पर काबू पा लेती है,,,दुख दर्द  से तो कोई बचाव नहीं ,,,लेकिन ना खुशी पर घल्बा  पाया जा सकता है,,,बशर्त की आदमी किसी ऐसी चीज़ से लौ लगा ले की जिसकी खातिर जिंदा रहना अच्छा लगे"।
