बुधवार, 14 दिसंबर 2011

नूर्नबर्ग परीक्षण”


जर्मनी के बावरिया शहर में नूर्नबर्ग नाम का एक स्थान हुआ करता था, जहाँ १९४५-४६ में  सैन्य ट्रिब्यूनल की एक श्रृंखला आयोजित की गयी जिसके आयोजक थे  द्वितीय विश्व युद्ध के विजयी मित्र देश. इस सैन्य ट्रिब्यूनल को नूर्नबर्ग परीक्षण का नाम दिया गया लेकिन इस परिक्षण के शुरू होने से पहले ही इस युद्ध के कई मुख्य आर्किटेक्ट लोगो जैसे कि  एडॉल्फ हिटलर, हेनरिक हिमलर, और जोसेफ गोएब्बेल्स ने आत्म हत्या कर ली थी. इसी नूर्नबर्ग परीक्षण  को लेकर रूसी फिल्मकार रोमन कारमेन ने नाम से एक डोक्युमेनट्री बनाई जिसका नाम था नूर्नबर्ग परीक्षण ५८ मिनट की इस फिल्म १९४७ में रिलीज़ हुई थी. इस बेहद चर्चित फिल्म का यह पहला भाग.

शनिवार, 29 अक्तूबर 2011

जवाबी पोस्टकार्ड : लेखक श्रीलाल शुक्ल



लेखन का रोग जब नया नया ही लगा था उस समय नामचीन लेखको से पत्र व्यवहार करने का जुनून जहन मे सवार था. अपने लिखे पत्रों के जवाब का लम्बा इंतज़ार रहता . उनके जवाबी पोस्टकार्ड मे लिखी पंक्तियाँ काफी दिनों तक याद रहती. उस दौर मे श्री विष्णु प्रभाकर, निर्मल वर्मा, ज्ञानरंजन, लीलाध्रार जगूड़ी, नीरज, रमेशचंद्र शाह, गिरिराज किशोर, भगवत रावत, स्वदेश दीपक, शेखर जोशी, कन्हईयालाल नंदन, अलोक मेहता, चित्रा मुदगल, चंद्रकांता, हिमांशु जोशी के साथ पत्र व्यवहार चला. जिनमे विष्णु प्रभाकर, स्वदेश दीपक और निर्मल वर्मा जी से बहुत कुछ सीखा और इन तीनों से लम्बा पत्र व्यवहार जब तक यह तीनों लेखक हमारे बीच से चले नहीं गए. इन तीनों माननीय लेखको के ढेरो पोस्टकार्ड मेरे पास सुरक्षित हैं जिन्हे पढ़ कर हर बार नई उर्जा मिलती है. इसी क्रम मे २००५ को श्रीलाल शुक्ल को उनका प्रशिद्ध रागदरबारी पढ़ कर एक पोस्ट कार्ड लिखा था जिस के जवाब मे उनका यह जवाबी पोस्टकार्ड आया.
इसमे वर्णित चंद पंक्तियों मे ही लेखक की निराशा झलकती है. लेखक अपने लेखन से संतुस्ट नहीं दिखते यह निराशा किन कारणों से है. आज मे इस सोच मे हूँ कि उनके जाने के बाद ही हम क्यों उन्हे महिमामंडित करते हैं उनके जीते जी उन्हे खुशनुमा वातावरण क्यों नहीं देते जिनके वे हक़दार है.
समाज एक लेखक को निराशा भरा वातावरण क्यो देता है . जबकी लेखक समाज का ही सटीक चित्रण कर रहा होता है और वो सच्चाई भी वह अपने लेखन मे प्रस्तुत करता है जिसे हम आम तौर पर नज़र अंदाज़ कर गुज़र जाते हैं.
एक लेखक के लिये सामाजिक प्रोत्साहन का आभाव इस कदर क्यों है. जबकी श्रीलाल शुक्ल ढेरो रचनाओ के साथ एक कालजयी उपन्यास रागदरबारी दुनिया को दे चुके हैं.
यह एक विचारणीय प्रशन है जिसका जवाब हमारे ही पास है.

शनिवार, 22 अक्तूबर 2011

अब मैं राशन की कतारों मे नज़र आता हूँ : जगजीत सिंह आम जनता के ख़ास गायक

एक दौर में ग़ज़ल नाम था एक दुरूह रचना का, जिसमे उर्दू के कठिन शब्दों का समावेश होता था, एक दूसरे दौर मे जिन गायको की मार्फ़त ग़ज़ल की जुदा पहचान मिली उनमे जगजीत सिंह का नाम सबसे ऊपर है. जगजीत सिंह ने ग़ज़ल को ख़ास क्लास से बाहर निकाल कर आमो ख़ास तक पहुँचाया, तब उन्होने निदा फाजली, दुष्यंत कुमार, बशीर बद्र के लेखन को अपनी बुलंद आवाज़ मे गाया l इन गजलो मे इंसानी जीवन के रोज़मर्रा के सुख दुःख जुडे होते थे. जिस से हम सभी अपने आप को जोड़ कर देखते थे. बानगी के तौर पर जगजीत सिंह द्वारा गयी गयी यह गजले.

अब में राशन की कतारों मे नज़र आता हू
कभी आंसू कभी खुशी बेची
आदमी आदमी को क्या देगा
मुह की बात सुने हर कोई
ये जो जिन्दगी की किताब है
परखना मत परेख्नी से कोई अपना नहीं रहता
जगजीत सिंह अपनी एल्बम मे नए आवाजों को शामिल कर उनका होंसला बढ़ाते थे
विनोद सह्गेल और सिजा रॉय ऐसे ही दो नाम थे जिनकी बेहद खूबसूरत आवाज़ को जिसने भी सुना वाह वाह कर उठा. सुनने वाले के कानों मे एक ताजगी का अद्भुद रस घुलता चला गया

जगजीत सिंह ने फिल्मो मे भी खूब गाया उनके द्वारा स्वरबद्ध कुछ फ़िल्मी गजलें
तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो
मेरे दिल में तू ही तू है
वो कागज़ की कश्ती
यह तेरा घर यह मेरा घर
फिर आज मुझे
रिश्ता यह कैसा है
हमसफ़र बनके हम
यह बता दे मुझे ज़िन्दगी
प्यार मुझ से जो किया तुमने तो क्या पोगी
तू नहीं तो ज़िन्दगी में और क्या रह जायेगा
कोई यह कैसे बताये
यूँ ज़िन्दगी की राह में मजबूर हो गए
झुकी झुकी सी नज़र
तुम को देखा तो यह ख्याल आया
जगजीत सिंह की गजले और अवसाद का गाढ़ा रंग
जगजीत सिंह के स्वर मे जो अवसाद का रंग घुला हुआ है वह शिव कुमार बटालवी जैसे कवियों के दर्द भरे लेखन मे और गहरा हो जाता है. उनके गाये ये पंजाबी गीत मील का पत्थर बन गए है. जिन्हे पंजाबी भाषा से परिचय नहीं है वे भी इन्हे सुनकर प्रभावित हुए बिना नहीं रहते.

माये नी माये मै एक शिकरा यार बनाया नी
रोग बन के रह गिया है पियर तेरे शहर डा " ,
"यारियां राब करके मेनू पाएं बिरहन दे पीदे वे ",
"एह मेरा गीत किसी नि गाना "
जगजीत सिंह के गाये पंजाबी टप्पे भी खूब प्रसिद्ध हुए हैं
मसलन
चूल्हे आग न घडे दे विच पानी चड्याँ दी नहीं निभदी
कोठे थे आ माहिया
लारा लापा लाई रखदा
मिट्टी डा बावा बनाया नी
जीवन मे रंग भरते यह गीत और ग़ज़ल हमारी दुःख तकलीफे हर लेने का मादा रखते है और जीवन की उदासी को परे कर देते हैं, हम जगजीत सिंह को सुनते और खुश होते कि हमारे पास जगजीत सिंह जैसा विरल गायक है जिस की आवाज हमारे मन मे सीधी उतरती है. देश विदेश मे उनके गजलो के हजारो शो हुए.

जगजीत सिंह का अपना अलहदा मुकाम

१९७० के उस दौर मे जब फ़िल्मी दुनिया के पास एक से बढ़ कर एक नायब गायक थे जिन मे मो रफ़ी, किशोर कुमार, तलत महमूद और हेमंत कुमार का नाम पहली पंक्ती मे था तब अपनी अलग पहचान बनाना आसन नहीं था. साहिर के रोमांटिक गीत और मोहमद रफ़ी की मुलायम आवाज़ का नशा कभी न उतारने वाला नशा था. पर आज़ादी के बाद का ये सुरूर से भरा दौर था जब नई समाज का नए सिरे से गठन हो रहा था. उसके बाद १९८० का दौर मोह्हंग का दौर हो चला था उस आधुनिक समय के लिये जनमानस कई चीजों को परख रहा था. उसी समय राजस्थान के गंगा नगर का एक नौजवान ग़ज़ल का साथ ले कर संगीत के मैदान मे उतरा. वह जानता था की मंजिल मुश्किल है पर नामुमकिन नहीं.और यह उस जुनून का ही परिणाम था कि कुछ समय बाद जगजीत सिंह नाम का एक सितारा गायन के मैदान पर उतरता है और चारों दिशाओं में छा जाता है.
१९८७ मे मल्टी ट्रैक रेकॉर्डिंग मे गाने वाले जगजीत सिंह और चित्र सिंह पहले गायक बने और उस समय उनकी उस एल्बम का नाम रखा गया ' बियोंड टाइम'
जगजीत सिंह और चित्र सिंह की इस पहली एल्बम के ये गाने बहुत लोकप्रिय हुए
झूठी सच्ची आस पर जीना आखिर कब तक
ये करे और वो करें
मेरा दिल भी शौक से तोड़ो
लोग हर मोड़ पे
अपनी आग को जिन्दा रखना
फ़िल्मी गीतों से अलग इन गजलो का तापमान इंसानी रूह के उस तापमान से मिलता जुलता था जो रोमांटिक, मायावी, तिलस्मी और सोंदर्य बोध मे लिपटा हुआ नहीं था अपितु इन्सान की रोजमर्रा की थकान, उब, और टूट से जुड़ाव रखता था.
गरज बरस प्यासी धरती को
घर से मस्जिद है बहुत दूर
बदला न अपने आप को
जगजीत सिंह का गजलो का चुनाव बेहतरीन होता था जो जीवन की शुष्क मिट्टी सा धूसर होता था
यही नहीं जब जगजीत सिंह ने फिल्मो की तरफ रुख किया तो भी खूब वाह वाही लूटी.फिल्म प्रेमगीत का गीत होठो से छु लो तुम मेरा गीत अमर कर दो तो एक कालजई गीत बन ही गया है.
फ़िल्मी अभिनेताओ राज किरण और फारुक शेख पर जगजीत सिंह की आवाज़ खूब फबी.इसके अलावा महेश भट्ट निर्मित फिल्म 'अर्थ' के कैफी आज़मी द्वारा लिखे सभी गीत बेहद लोकप्रिय हुए.
जगजीत सिंह ने हिंदी और पंजाबी फिल्मों के अलावा भी खूब दिल खोल कर खूब गाया, तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी की लिखी कविताओ पर जगजीत सिंह ने दो अलबम निकले १९९९ में नई दिशा और २००२ में संवेदना जो काफी मशहूर हुई.
समाज सेवा को जगजीत सिंह ने गायकी के साथ जोड़ा बच्चो के लिये समर्पित संस्था क्राई के लिये अलबम क्राई फॉर नाम से और प्रभु भक्ति की माँ के अद्भुद भजनों से हरे कृष्ण, माँ, हे राम ...हे राम , इछाबल और मन जीती जगजीत (पंजाबी ) में सच तो यह है की बौद्धिक संसार तो महान कलमकारों की लेखनी का जानकार और कायल था ही पर आम जनता की जुबान पर महान रचनाकारों की शायरी को गुनगुनाने का श्रेय काफी हद तक जगजीत सिंह को ही जाता है उन्होने मिर्ज़ा ग़ालिब ,फ़िराक गोरखपुरी , कतील शिफाई, कबीर, अमीर मीने , कफील आजेर, सुदर्शन फाकिर और निदा फाजली और समकालीन शायरों जैसे कि जका सिदिदिकी , नज़र बकरी , फैज़ रतलामी, राजेश रेड्डी और अभिषेक श्रीवास्तव के लेखे को अपनी बुलंद आवाज़ मे गाया.
हाल के वर्षो मे बनी कुछ फिल्मो जैसे दुश्मन , सरफ़रोश , तुम बिन और तरकीब मे उनकी गजलो का इस्तेमाल किया गया जिसे म्यूजिक पर धिरक्ने वाली युवा पीढी ने भी खूब पसंद किया.
हाल ही मे (२०११) काफी समय के बाद जगजीत सिंह और चित्रा सिंह की गोदी ने युगल स्वरों मे एक ग़ज़ल संग्रह रिकॉर्ड किया.
बेमिसाल जोड़ी के रूप मे जगजीत सिंह और चित्र सिंह की आवाज़ अमर रहेगी. जब दोनों युगल स्वरों मे गाते है
बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी
आये है समझाने लोग है कितने दीवाने लोग
उस मोड़ से शुरू करे फिर ये जिन्दगी
अगर हम कहें और वो मुस्कुरा दे
मेरे जैसे बन जाओगे
तो हमेशा चिर परिचित करतल ध्वनि बज उठती है.
१९८८ मे गुलजार द्वारा निर्देशित मिर्ज़ा ग़ालिब के जीवें पर बना टेलीविज़न सीरियल मे जगजीत सिंह ने अपनी बुलंद आवाज़ दी तो लगा मिर्ज़ा असदुल्लाह खां ग़ालिब फिर से जीवित हो उठे हैं. उनकी शायरी आज भी लाखो लोगों की जुबान पर है जो जगजीत सिंह की आवाज़ पा कर आम जन तक पहुँची.
आह को चाहेये
बगीचा ए अफ्ताल है दुनिया मेरे आगे
दिल ए नादान तुझे हुआ क्या है
कबसे हूँ क्या बताऊँ
न था कुछ तो खुदा था
वो फिराक और वो विसाल कहाँ
यह न थी हमारी किस्मत
जुल्मत कदे में मेरे
उनके देखे से
हजारों खावईश्य ऐसी
जगजीत सिंह ने २००७ 'अदा' और २००८ मे 'सजदा' नाम से लता मंगेशकर के साथ गया और आशा भोंसले के साथ गयी ग़ज़ल के साथ उनकी विडियो एल्बम जब सामने तुम आ जाते हो न जाये क्या हो जाता है युवाओ मे काफी पसंद की गयी. बाद में ऑडियो के साथ वीडियो मे भी जगजीत सिंह की गजलो के साथ देश के नामी मोडल्स ने काम किया गुलज़ार के साथ मिर्ज़ा ग़ालिब मे अपनी आवाज़ देने के बाद गुलज़ार की लिखी 'त्रिवेणी' नाम की हिंदी और उर्दू की नई विधा, जिस मे तीन मिसरे होते हैं को भी जगजीत सिंह ने अपनी आवाज़ दी जिसे सोनी म्यूजिक ने 'कोई बात चले' नाम से रिलीज़ किया.
चिठ्ठी न कोई सन्देश, जाने कौन से देश तुम चले गए
दिमाग की नस फटने के कारण जगजीत सिंह मुंबई के लीलावती हॉस्पिटल मे भारती हुए तो देश विदेश मे उनकी सलामती के लिये प्रार्थनाये की जाने लगी पर १० अक्टूबर को वे अपने कहने वालो की आंखे नाम कर परम धाम चले गए .
यदि जगजीत सिंह के पास कुछ और जीवन के हिस्सा होता तो वे ग़ज़ल की दुनिया मे अपना कुछ और रंग भरते और हमारे जीवन के साथ कुछ और सुर जुड़ जाते. गायक अपनी गीतों के जरिये सदा अमर रहता है यह एक शाश्वत सत्य है और इसी सत्य पर हम सबको यकीन है.

सोमवार, 10 अक्तूबर 2011

जगजीत सिंह; ग़ज़ल गायकी का शाही अंदाज


कैसे भुलाई जा सकती है ऐसी पुरकशिश आवाज़ जिस में अवसाद का गाढ़ा स्वाद, प्रेम का सुरमई रंग और जीवन की खुशनुमा चह चाहट घुली मिली हो. राजस्थान की मिट्टी का यह गायक अपने शहर गंगानगर से लेकर राष्ट्र और अंतररास्ट्रीय स्तर पर अपनी जानदार गायकी के बल पर पहचाना जाता था.
मेरे कानों से उनके इस बुलंद स्वर का परिचय उस वक़्त से है जब मै सातवी कक्षा मे थी. दूरदर्शन पर एक ग़ज़ल सुनी थी ' न दोस्त है न रकीब है कोई. उसके बाद नया टेप रेकॉर्डर लेने के बाद इन्सेर्च, एन्कोरे, लव इस ब्लेंड, मरासिम, और अर्थ के कालजयी गीतों की तीन कैसेट्स सुन सुन कर ख़तम कर डाली थी.
और फिर गुलज़ार द्वारा मिर्ज़ा ग़ालिब पर बनाया गया टेली विज़न धारावाहिक में ग़ालिब की नज्मो और गजलो को बेहद खूबसूरत आवाज़ दे कर मैं लगभग चमत्कृत हो गयी थी. जगजीत सिंह ने निदा फाजली को सबसे जयादा गया, दुष्यंत की गजले और ढेर सारे पंजाबी और हिंदी फ़िल्मी और गैर फ़िल्मी गीत. फिल्म अमर प्रेम का यह गीत होटों को छु लो तुम मेरा गीत अमर कर दो तो सभी के होटों पर थिरकने लगा था.
मेडिकल ट्रांस क्रिप सन के दौरान हमारे सर डॉक्टर भारद्वाज बताया करते कि उनके पी जी आई चंडीगड की पढ़ाई के दौरान शाम के समय जगजीत सिंह औपचारिक महफ़िल जमाते थे और लगभग आधी रात तक शिव कुमार बटालवी की गजले गाया करते थे जिसमे हम डाक्टर लोग डूब जाते थे
फिर बाद मे कुछ बड़ा होने पर जब मेहँदी हसन की गायकी सुनी तो उनकी आवाज़ के जादू मे कायल हो गयी थी मै पर तब भी जगजीत सिंह की आवाज़ का जादू सर पर सवार रहा जो हमेशा अपना असर जमाये रहेगा.

मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

फैज़ अहमद फैज़ के खत, दानिश इकबाल की आवाज़ और दुख का उजला पक्ष


''दुख और नाखुशी दो मुखतलिफ और अलग-अलग चीज़ें हैं और बिलकुल मुमकिन है कि आदमी दुख भी सहता रहे और खुश भी रहें" ये पंक्तियाँ फैज़ अहमद फैज़ ने जेल की चारदीवारी में रहते हुऐ अपनी पत्नी को १५ सितम्बर १९५७ को लिखी थी। ख़त के माध्यम से दुनिया के सामने दुख का अनोंखा और उजला पक्ष रखने वाले फैज़ को आज हम उंनकी जन्म शताब्दी पर याद कर रहे है जिसके तहत देश भर में उन्हें अलग -अलग तरीके से उन्हें याद किया जा रहा है। राजधानी दिल्ली में भी फैज़ की याद को समर्पित कई कार्यक्रम आयोजित किऐ जा रहे हैं इसी कडी में एक खूबसूरत कार्यक्रम बीती रविवार को इंडिया हबिटैट सेन्टर की खुली छत पर आयोजित किया गया। रंगमंच और रेडियो के दो दिग्गजों दानिश इकबाल और सलीमा राजा ने फैज़ के लगभग ३०-३५ खतों के सार पढ़े। जिस नाटकीय लय में दोनों ने फैज़ के लिखे को अपनी आवाज़ दी वह बेहद दिल दिमाग को सुकून देने के साथ कानो मै भी शहद घोलने वाला रहा, लगभग ढाई घंटें वहाँ मौजुद लोग मुग्ध हो उन्हें सुनते रहे। उस समय पूरा माहौल फैज़मय हो उठा जब इकबाल बानो और शौकत खान जैसे महान गायकों द्वारा गई उनकी तीन गज़लें को भी सुनाया गया

१९५० के उस दौर में जब पूरा उपमहाद्वीप राजनीतिक अशांति से गुज़र रहा था, तब इस प्रबुद्ध दम्पति के ज़ीवन में क्या उधल पुधल चल रही थी इसका पता हमें उनके द्वारा लिखे इन पत्रों से मिला। ये पत्र जीवन को तिरछी नज़र से भी देखने का साहस दिखाते हैं। फैज़ अपने पत्रों में अपनी पत्नि से बार-बार यह गिला कर रहे थे की उन्कें जेल मे रहने से उनहें घर और बहार दोनों की जिम्मेदारेयाँ संभालनी पर रही हैं।

जीवन के किसी मोड पर जब इन्सान का सामना दुःख से होता है तो वह लगभग विचार शुन्य हो जाता है। फैज़ के लिये उस खास घडी से उपजे दुःख के अलग मायने थे, तब समझ मे आता है की दुःख को कितनी शायस्तगी से जीया था फैज़ ने। दुख से घबराने वाले और दुख में ढूब जाने वाले हम सतही चीज़ों पर ही विचार करते रह जाते हैं। पर कहतें हैं कि सामान्यता से ठीक उलट जीवन को बेहतर तौर पर जीने का रास्ता कोई विलक्षण बुद्धी वाला ही खुल कर सामने रख सकता है और इसी सोच का सामने रखा फैज़ ने.

फैज़ के पत्रों के जवाब में उनकी प्रबुद्ध ब्रिटिश पत्नी अल्यस फैज़ के जवाब भी उतने ही गहन और माकूल थे। ये सभी ख़त निजी होते हुऐ भी सामाजिक दृष्टी से महताव्पूर्ण है और जीवन को नयी दिशा दिखाने का काम करते है जब जीवन में सरे राह चलते चलते कई तरह की परेशानियाँ हमें घेर लेती हैं तो उस वक़्त में कैसे उनसे पार पाया जा सकता है यह सोचने का विषय है। सबका दुख अलग-अलग होता है और दुख को देखने का नज़रिया भी। ज़ब हमारे लाख चाहते हुऐ भी जब कुछ अज़ीज चीज़ों की परछाई हमारे पास से बहुत दूर चली जाती हैं और जो चीज़े समय की तेज़ रफ़्तार में हमारे हाथ से छुट जाती है उनहें खोने का दर्द हमें बार बार सालता है कुछ अति संवेदनशील लोगों के लिए दुख एक टानिक का काम भी करता है और यह भी सच है कि दुःख का वातावरण कला में पैनापन ले आता है तभी जब-जब भी समाज में बडे तौर पर विपत्ति आई है तब कला भी सघनता से उभर आई है। जैसे दक्षिण अफ्रीकन देशों की त्रासदी, नाइजीरिया का गृहयुद्ध, भारत-पाक विभाजन, सोवियत-रुस का विखंडन आदि एक बडी त्रासदी के रूप में जब समाज में उभरी तो कला मे पैनापन आया नोबल पुरस्कार विजेता ब्रिटिश लेखिका डोरोथी लेंसिंग का मानना है "आँसू वास्तव में मोती हैं" और असदुल्ला खान ग़ालिब भी कह गए है "दर्द के फूल भी खिलते है बिखर जाते हैं, जख्म कैसे भी हो कुछ रोज़ में भर जाते है" लेकिन फैज़ ने दुःख -दर्द का जो मनोवाज्ञानिक विश्लेषण किया है वह बेमिसाल है। निजता बहुत अज़ीज़ चीज़ है मगर उससे इतना विस्तार देना भी ताकि उससे बाकी लोग भी सबक ले सके, यह बडी बात है।

भावनाओं का सार, खुशी का उत्साह, अवसाद की अकड़न, चिंता की चिंता, यह सब मस्तिक्ष में ख़ुशी औरउल्लास की भावनाओं की तरह ही एक आसमानी इंद्रधनुष की तरह से हैं जो क्षणभंगुर होता है।

जहाँ तक शोधकर्ताओं ने मस्तिष्क की संरचना को खंगाला के बाद यह निष्कर्ष निकला कि मस्तिष्क सिर्फ एक भावनात्मक केन्द्र नहीं है जैसा कि लंबे समय से यह माना जाता रहा है, बल्कि वहां अलग-अलग भावनाओं की सरंचना भी शामिल है। पुरुषों और महिलाओं के दिमाग मे सुख और दुख अलग- अलग तरह से असर डालते है। न्यू साउथ वेल्स विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान के प्रोफेसर जोसेफ फोरगस ने इस पर शोध कर यह परिंणाम निकाला कि नाकारात्मक मूड में लोगों की रचनाशीलाता अधिक बढ़ जाती है। पीडा एक सार्वभौमिक प्रेरक तत्व है, जब हम पीडा में उलझे होते हैं तो इससे बाहर आने के उपाय खोजनें लगते हैं और इसके उबरने के लिये अपनी गतिविधियाँ बढा देते हैं यह ठीक ऐसा ही है जैसे दलदल में फसें होनें पर उस से बाहर निकलनें के लिये हाथ-पाँव मारना। यह सच है जब हम दूर खडे होकर अपने दुख की अनुभूति को देखने, परखने और परिभाषित करने की शमता विकसित करेगें तभी दुसरों के दुख में हमारी भागीदारिता बढ सकेगी। इस मामले में कई संवेदनशील विभूतियों की तरह फैज़ भी धनी थे तभी वे दुख का सटीक विश्लेषण कर सके।

बहरहाल फैज़ अपने इसी खत में आगे लिखते है

"दुख और नाखुशी दो मुखतलिफ और अलग-अलग चीज़ें हैं और बिलकुल मुमकिन है कि आदमी दुख भी रहता रहे और खुश भी रहें। दुख और ना-खुशी खारिज़े चीज़ें हैं जो हमारी या हादसे की तरह बाहर से वारिद होते है, जैसे हमारी मौजुदा जुदाई हैं। या जैसे मेरे भाई की मौत है ,,, लेकिन नाखुशी जो इस दर्द से पैदा होती है अपने अंदर की चीज़ है ये अपने अंदर भी बैठी पनपती रहती है,,,और अगर आदमी एतीहात ना करे तो पुरी शक्सियत पर काबू पा लेती है,,,दुख दर्द से तो कोई बचाव नहीं ,,,लेकिन ना खुशी पर घल्बा पाया जा सकता है,,,बशर्त की आदमी किसी ऐसी चीज़ से लौ लगा ले की जिसकी खातिर जिंदा रहना अच्छा लगे"