जीवन की इस आपा धापी में कई परम्परागत मुल्य कम होते जा रहै हैं। मानवीय संवेदनाऐ मानों खत्म ही हो गई हैं। सभी लोग बस पैसों की तरफ दौड रहें है। जो मुल्य कभी हमारे लिये बेहद मुल्यवान थे अब वो ही हमें बोछ लगने लगे हैं। पर जब हम हर तरफ से हम मुसीबत में घिर जाते हैं तब ये मुल्य हमेशा हमें सही रास्ता दिखायेगे ऐसा हमारा विश्वास है। संगीत, साहित्य जैसी कई चीजें अब भी है हमारे पास जो इस पत्थर होती दुनिया को पत्थर होने से बचायेगें।
पत्थर होती दुनिया
मुहावरे अपने अथ
गढने में
नाकाम रहे हैं
शब्द अपनी संवेदनाओ
की तह तक
नहीं पहुँच सके हैं
रोश्नी, अधेरों की
बगलगीर हो गई है
मौन
चीखनें चिल्लानें को
मजबूर हो उठा है।
अवतारों के चमकते चहरे स्याह
पडते लगे हैं
बरसों स्थापित रंग तक
चुराये जा रहे हैं
जीवन राही को
अपनी मंजिल नहीं मिल
सकी है
इस सदी और अवसाद से भरे
दुरूहपुण समय मैं
मैं लिख रही हुँ
कविता
शायद
शब्दों के ताप से
पिघल सके यह
पत्थर होती दुनिया।
शुक्रवार, 19 सितंबर 2008
सोमवार, 8 सितंबर 2008
गुरु मंञ
हम सभी एक उद्देश्य लेकर इस धरती पर आते हैं। हमारे पास जीने का जितना भी समान है हमें उसी से ही काम चलाना पडता है। इंसानों से लेकर प्रकर्ति के पास अपने जीवन यापन का सभी साजों सामान मौजुद है। सभी जीवित चीजें अपनी निर्धारित गति से ही चलते हैं। आज से ही नहीं आदि अन्नत काल से ही यह नियम रहा है।
धरती पर पायी जाने वाली सभी वस्तुओं को ध्यान से देखने पर पता चलता है कि हम सभी अपने-अपने दायरे में सुरक्षित हैं यानि हम सभी के पास अपने लिये गुरु मंत्र हैं।
प्रस्तुत है इसी विषय पर एक कविता
गुरू मंत्र
जिंदगी
अपनी मंजिल
खुद ब खुद तलाश लेती हैं
पगडंडियों को कभी कमी
नहीं रही कई जोडी पाँवों की
नदियों को भी हासिल हैं
चप्पुओं की हलचल
पृथ्वी के
पास हैं
मौसमों की बदलती परिक्रमा
आसमान ने भी
जुटा रखे हैं
चाँद, सूरज
ढेर सारे तारें
नन्हें बीज भी
ढूंढ लेते हैं
अपने विस्तार के लिये
थोडी सी जमीन
अपने-अपने
हितों को साधने का गुरू मंत्र
हम सभी के पास सुरक्षित है।
धरती पर पायी जाने वाली सभी वस्तुओं को ध्यान से देखने पर पता चलता है कि हम सभी अपने-अपने दायरे में सुरक्षित हैं यानि हम सभी के पास अपने लिये गुरु मंत्र हैं।
प्रस्तुत है इसी विषय पर एक कविता
गुरू मंत्र
जिंदगी
अपनी मंजिल
खुद ब खुद तलाश लेती हैं
पगडंडियों को कभी कमी
नहीं रही कई जोडी पाँवों की
नदियों को भी हासिल हैं
चप्पुओं की हलचल
पृथ्वी के
पास हैं
मौसमों की बदलती परिक्रमा
आसमान ने भी
जुटा रखे हैं
चाँद, सूरज
ढेर सारे तारें
नन्हें बीज भी
ढूंढ लेते हैं
अपने विस्तार के लिये
थोडी सी जमीन
अपने-अपने
हितों को साधने का गुरू मंत्र
हम सभी के पास सुरक्षित है।
बुधवार, 3 सितंबर 2008
बाढ की विभीषिका
बिहार में इन दिनों जबरदस्त बाढ का प्रकोप जारी है। हर रोज बाढ की विभीषिका की तस्वीरें अखबार में देखने को मिलती है। सवाल यह उठता है, हर साल आने वाली इस बाढ की रोकथाम की व्यवस्था के लिये सरकार के पास कोई कारगर उपाय नहीं है। सभी प्राकृतिक आपदाओं की मार गरीबों पर ही पडती है। उन्हें ही अपने घर से बेघर होना पडता है, अपने ढोर-डंगर सभी को लेकर घुटनें तक के पानी को पार करते हुये गाँव की सीमा को पार कर जाना पडता है दोबारा लौट कर आने के लिये और अगले साल फिर से उसी त्रासदी का शिकार होने के लिये।उस पर राजनेताओ का हवाईजहाज से हालात का जायजा लेना भी एक नाटक ही लगता है।
नाटक
कविता के बदले
उन्हें
उम्मीद थमाई जा रही है
हौसलों के बदले, दुआ
जीवन जैसा ही कोई
नाटक खेला जा रहा है
इस वक्त
अधिकतर सपने
अँधेरों की उपज हैं
जो जरा सी रोश्नी में आते ही
लडखडाने लगते हैं
कविता
प्रतीकार आवेगों का पतिकारों
कभी नहीं रहीं
उसका
इतना बुरा अंजाम
इतिहास में कभी नहीं रहा
केन्दीय सत्ता के
शिखर पर बैठ
अपनें बौनेपन पर
चहकनें वालों को
उनकी हैसियत दिखाने वाला
अब कोई नहीं
आईने
इतने कमजोर हो चले हैं
जो चमकिले चेहरों के
सामने आते ही
तडकनें लगते हैं
बर्बरता अपने चाकु तेज कर रही है
हम निहत्थे खडे हैं
कुछ तो थामों
इस अहिंसावादी देश के इतिहास में
कभी तो हिंसा का बेखौफ नमुना दज हो
समय के साथ न चलना ही
अकर्मण्यता का प्रतीक माना
जाता हो तो कैसा परहेज
वक्त कुछ न कुछ तो सिखा ही रहा है
चाहे बुराई का प्रथम पाठ ही
यह तो तय है ही
कहीं भी हो
बारूद का धुँआ हर घर में पँहुच ही जाता है
और हमारी सहनशीलता को दाद दीजिए
उसी धूयें में हम
टीवी देखते, बतियाते
सपनों का लम्बा बाना ओढ सो जाते हैं
कल की बेहतरी के बारे में सोचते हुये।
नाटक
कविता के बदले
उन्हें
उम्मीद थमाई जा रही है
हौसलों के बदले, दुआ
जीवन जैसा ही कोई
नाटक खेला जा रहा है
इस वक्त
अधिकतर सपने
अँधेरों की उपज हैं
जो जरा सी रोश्नी में आते ही
लडखडाने लगते हैं
कविता
प्रतीकार आवेगों का पतिकारों
कभी नहीं रहीं
उसका
इतना बुरा अंजाम
इतिहास में कभी नहीं रहा
केन्दीय सत्ता के
शिखर पर बैठ
अपनें बौनेपन पर
चहकनें वालों को
उनकी हैसियत दिखाने वाला
अब कोई नहीं
आईने
इतने कमजोर हो चले हैं
जो चमकिले चेहरों के
सामने आते ही
तडकनें लगते हैं
बर्बरता अपने चाकु तेज कर रही है
हम निहत्थे खडे हैं
कुछ तो थामों
इस अहिंसावादी देश के इतिहास में
कभी तो हिंसा का बेखौफ नमुना दज हो
समय के साथ न चलना ही
अकर्मण्यता का प्रतीक माना
जाता हो तो कैसा परहेज
वक्त कुछ न कुछ तो सिखा ही रहा है
चाहे बुराई का प्रथम पाठ ही
यह तो तय है ही
कहीं भी हो
बारूद का धुँआ हर घर में पँहुच ही जाता है
और हमारी सहनशीलता को दाद दीजिए
उसी धूयें में हम
टीवी देखते, बतियाते
सपनों का लम्बा बाना ओढ सो जाते हैं
कल की बेहतरी के बारे में सोचते हुये।
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