शुक्रवार, 19 सितंबर 2008

पत्थर होती दुनिया

जीवन की इस आपा धापी में कई परम्परागत मुल्य कम होते जा रहै हैं। मानवीय संवेदनाऐ मानों खत्म ही हो गई हैं। सभी लोग बस पैसों की तरफ दौड रहें है। जो मुल्य कभी हमारे लिये बेहद मुल्यवान थे अब वो ही हमें बोछ लगने लगे हैं। पर जब हम हर तरफ से हम मुसीबत में घिर जाते हैं तब ये मुल्य हमेशा हमें सही रास्ता दिखायेगे ऐसा हमारा विश्वास है। संगीत, साहित्य जैसी कई चीजें अब भी है हमारे पास जो इस पत्थर होती दुनिया को पत्थर होने से बचायेगें।

पत्थर होती दुनिया
मुहावरे अपने अथ
गढने में
नाकाम रहे हैं
शब्द अपनी संवेदनाओ
की तह तक
नहीं पहुँच सके हैं
रोश्नी, अधेरों की
बगलगीर हो गई है
मौन
चीखनें चिल्लानें को
मजबूर हो उठा है।
अवतारों के चमकते चहरे स्याह
पडते लगे हैं
बरसों स्थापित रंग तक
चुराये जा रहे हैं
जीवन राही को
अपनी मंजिल नहीं मिल
सकी है
इस सदी और अवसाद से भरे
दुरूहपुण समय मैं
मैं लिख रही हुँ
कविता
शायद
शब्दों के ताप से
पिघल सके यह
पत्थर होती दुनिया।

4 टिप्‍पणियां:

Vivek Gupta ने कहा…

शानदार

Udan Tashtari ने कहा…

मैं लिख रही हुँ
कविता
शायद
शब्दों के ताप से
पिघल सके यह
पत्थर होती दुनिया।

--वाह!! बहुत खूब!! लिखती रहें.

Advocate Rashmi saurana ने कहा…

bhut badhiya. jari rhe.

richa ने कहा…

bhut satik baat likhi apne.