बुधवार, 3 सितंबर 2008

बाढ की विभीषिका

बिहार में इन दिनों जबरदस्त बाढ का प्रकोप जारी है। हर रोज बाढ की विभीषिका की तस्वीरें अखबार में देखने को मिलती है। सवाल यह उठता है, हर साल आने वाली इस बाढ की रोकथाम की व्यवस्था के लिये सरकार के पास कोई कारगर उपाय नहीं है। सभी प्राकृतिक आपदाओं की मार गरीबों पर ही पडती है। उन्हें ही अपने घर से बेघर होना पडता है, अपने ढोर-डंगर सभी को लेकर घुटनें तक के पानी को पार करते हुये गाँव की सीमा को पार कर जाना पडता है दोबारा लौट कर आने के लिये और अगले साल फिर से उसी त्रासदी का शिकार होने के लिये।उस पर राजनेताओ का हवाईजहाज से हालात का जायजा लेना भी एक नाटक ही लगता है।
नाटक
कविता के बदले
उन्हें
उम्मीद थमाई जा रही है
हौसलों के बदले, दुआ

जीवन जैसा ही कोई
नाटक खेला जा रहा है
इस वक्त
अधिकतर सपने
अँधेरों की उपज हैं
जो जरा सी रोश्नी में आते ही
लडखडाने लगते हैं

कविता
प्रतीकार आवेगों का पतिकारों
कभी नहीं रहीं
उसका
इतना बुरा अंजाम
इतिहास में कभी नहीं रहा

केन्दीय सत्ता के
शिखर पर बैठ
अपनें बौनेपन पर
चहकनें वालों को
उनकी हैसियत दिखाने वाला
अब कोई नहीं

आईने
इतने कमजोर हो चले हैं
जो चमकिले चेहरों के
सामने आते ही
तडकनें लगते हैं
बर्बरता अपने चाकु तेज कर रही है
हम निहत्थे खडे हैं
कुछ तो थामों
इस अहिंसावादी देश के इतिहास में
कभी तो हिंसा का बेखौफ नमुना दज हो
समय के साथ न चलना ही
अकर्मण्यता का प्रतीक माना
जाता हो तो कैसा परहेज
वक्त कुछ न कुछ तो सिखा ही रहा है
चाहे बुराई का प्रथम पाठ ही
यह तो तय है ही
कहीं भी हो
बारूद का धुँआ हर घर में पँहुच ही जाता है
और हमारी सहनशीलता को दाद दीजिए
उसी धूयें में हम
टीवी देखते, बतियाते
सपनों का लम्बा बाना ओढ सो जाते हैं
कल की बेहतरी के बारे में सोचते हुये।

2 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत सही...

५ दिन की लास वेगस और ग्रेन्ड केनियन की यात्रा के बाद आज ब्लॉगजगत में लौटा हूँ. मन प्रफुल्लित है और आपको पढ़ना सुखद. कल से नियमिल लेखन पठन का प्रयास करुँगा. सादर अभिवादन.

richa ने कहा…

aap kavitoon ke madyam se esi tarah jwalant visyoon ko uthati rahaen.meri subh kamnayan aap ke saath hain.