न जाने बेजान स्मृतियों में इतनी
ताकत कहां से आ गई कि वे
यकायक उठ कर वर्तमान में अपनी
जडें तलाशने लगी थी ।
शायद यह वक्त ही
अपने आप को पूरा होते हुए
देखने का था
मैंने अपने दोनों हाथ उठाये
मेरी दुआ तुरंत कबुल हो गई
समय खामोशी के साथ था
इससे पहले की शब्द अपना
मनचाहा आकार ले पाते
खामोशी अपना काम कर गई
7 टिप्पणियां:
बहुत ख़ूब !
बहुत ख़ूब !
bahut din baad aap ka likha padhaa achcha lagaa
waah.vipin ji wah.aapki kavita bahut pasand aai
ऐसी रचनाएँ बहुत कम पढ़ने को मिलती है एक सशक्त भावपूर्ण रचना..धन्यवाद विपिन जी...
बहुत बढि़या!
umda rachna...
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