शनिवार, 12 जून 2010

खामोशी और शब्द



न जाने बेजान स्मृतियों में इतनी
ताकत कहां से आ गई कि वे
यकायक उठ कर वर्तमान में अपनी
जडें तलाशने लगी थी ।

शायद यह वक्त ही
अपने आप को पूरा होते हुए
देखने का था


मैंने अपने दोनों हाथ उठाये
मेरी दुआ तुरंत कबुल हो गई

समय खामोशी के साथ था
इससे पहले की शब्द अपना
मनचाहा आकार ले पाते
खामोशी अपना काम कर गई

7 टिप्‍पणियां:

अमिताभ मीत ने कहा…

बहुत ख़ूब !

पारुल "पुखराज" ने कहा…

बहुत ख़ूब !

बेनामी ने कहा…

bahut din baad aap ka likha padhaa achcha lagaa

vanchit.blogspot.in ने कहा…

waah.vipin ji wah.aapki kavita bahut pasand aai

विनोद कुमार पांडेय ने कहा…

ऐसी रचनाएँ बहुत कम पढ़ने को मिलती है एक सशक्त भावपूर्ण रचना..धन्यवाद विपिन जी...

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत बढि़या!

sanu shukla ने कहा…

umda rachna...