सोमवार, 29 अक्टूबर 2012

लोलीवुड़


पाकिस्तान की फिल्मी उद्योग हम 'लोलीवुड़ के नाम से जानते हैं ठीक मुंबइया फिल्मी उद्योग की तरह,  1959 से 1969 में राष्ट्रपति अयूब के कार्यकाल के दौरान लोलीवुड़ का स्वर्णिम काल रहा और फिर 1988 से 2002 तक लोलीवुड़ का सितारा डूबता सा लगा। लेकिन हमेशा से पाकिस्तान के टेलीविज़न सीरीयल्स काफी सराहे जाते रहे हैं,  कुछ समय समय पहले एक शानदार पाकिस्तानी फिल्म खुदा के लिए देखने को मिली और अभी हाल ही में एक फिल्म आईना देखी जो वहाँ की सुपर हिट फिल्म मानी जाती है। आज तक सफलता के इस मुकाम तक कोई दूसरी पाकिस्तानी फिल्म नहीं पहुँच पायी है। गीत-संगीत सभी बेहतरीन।
1977 में नज़र-उल-इस्लाम द्वारा निर्देशित इस फिल्म का पहला सीन हूबहू 1975 में बॉलीवूड की फिल्म आँधी जैसा था बहरहाल पूरे तीन घंटे फिल्म ने बांधे रखा ठीक मुम्बईया मसाला फिल्मों की तरह। फिल्म देखते हुये लगा कि देशों की आपसी राजनीतिक उठा-पटक से अलग उनके बीच की सांस्कृतिक समानता कहीं न कहीं आ कर मिल ही जाती है।   

बुधवार, 15 अगस्त 2012

The Hindustan Times, 15 August 1947

आज़ादी की खबर देता "हिन्दुस्तान टाईम्स "तारीख १५ अगस्त १९४७ जिसने भी इस भोर होते ही इस  संस्करण को पढ़ा होगा और जो अनुभूति की होगी उसे  आज हम बखूबी महसूस कर सकते हैं 

गुरुवार, 5 जुलाई 2012

The Big Cog: ACT Government 2011-12 Budget

The Big Cog: ACT Government 2011-12 Budget: There is only so much that cycle advocacy can achieve. I was pleased, not elated, to see some commitments in this years ACT Government Bud...

The Treasures Of My Heart: Knitted facial scrubber

The Treasures Of My Heart: Knitted facial scrubber: I was thinking of face scrubbies the other day and realized I posted a pattern for a crochet one but not a knitted one. So, I grabbed some...

सोमवार, 2 जुलाई 2012

Raji's Ramblings: GOLDEN SHAWLS AND A TEMPLE

Raji's Ramblings: GOLDEN SHAWLS AND A TEMPLE: A couple of months ago, our music group Gangamritham was felicitated at the Sai Baba Temple , after we sang there. We were honoured with p...

रविवार, 1 जुलाई 2012

Tea with the Vintage Baroness: Hooked on 30s Crocheted Handbags

Tea with the Vintage Baroness: Hooked on 30s Crocheted Handbags: There is no better way to perfect one's vintage look than vintage accessories.  If you love 30s crochetwear like I do, you may already notic...

शनिवार, 30 जून 2012

Sated Magazine: Welcome to the online home of sated magazine. We'r...

Sated Magazine: Welcome to the online home of sated magazine. We'r...: Welcome to the online home of sated magazine. We're still getting things up and running around these parts, but please stay tuned for upcomi...

बुधवार, 27 जून 2012


भरी तरुणाई में जीवन का अस्त होना
ध्वनियों के छितरे हुए कतरे नहीं
छोटे और महीन तिनके हैं
ये बातें  
एक-एक कर इकट्ठी होती चली गयी जो
दोस्ती के एक हरियाले पेड़ पर
इन्हीं तिनकों से नन्हा सा घोंसला बनाता है
कहीं से उडते-उडाते
दो चिडियों का जोड़ा उस हरियाले पेड़ पर रहने लगता है
और फिर एक दिन
एक जालिम झोंका बातचीत के इस 
घोंसला को तितर बितर कर देता है
और यत्न से इकठ्ठे किये तिनके चारों दिशाओं में बिखरे नज़र आते हैं
 
इंटरनेट की आभासी दुनिया इतनी आभासी दुनिया नहीं है जितना की इसे समझा जाता है. इस आभासी दुनिया के आंगन में भी कई संबंध बनते-बिगडते हैं. कई नन्हें दोस्त  भी बनते है जो अभी जीवन के बड़े-बड़े जूतों में अपने पाँव डाल कर चलना सीख ही रहे होते हैं.
तहलका के फोटोपत्रकार तरुण सहरावत से परिचय करवाने का माध्यम भी यही इंटरनेट ही बना. महज डेढ़ साल की यह आभासी दोस्ती अचानक एक गहरे शोक में बदल गयी जब १५.६.१२ को तरुण के अचानक से चले जाने की खबर मिली.
फोटो पत्रकारिता का युवा चेहरा तरुण सहरावत अब हमारे बीच नहीं हैं. उसके अनगिनत जान पहचान वाले, दोस्त, नाते-रिश्तेदार सभी स्तब्ध थे. तरुण की फेसबुक वाल शोक संदेशो से भरने लगी है जो कुछ दिनों की सरगमी के बाद कहीं गुम हो जायेगी दुनिया के पिछले दस्तूर के मुताबिक.
 आपकी दिवाली कैसी रही वाक्य से तरुण से बातचीत की शुरुआत हुई और चार जून को मेरी प्रोफाइल पिक्चर पर तरुण की टिप्पणी और एक लिंक जिस पर तरुण के अबुजमर्ड, (छतीसगढ़) के माओवादी इलाके में खींचे गए थे के चित्रों के बीच में ही हमारी बातों का सिलसिला सिमट कार रह गया. इसबीच में तरुण से दो-तीन बार फोन पर बातचीत भी हुई.
तस्वीरे ही तो थी जो बातचीत के सिलसिले को निरंतर धार देती रही. तरुण की भेजी हुयी पंजाब, बिहार, दिल्ली की तस्वीरों के अनेकों लिंक और फिर ये बातचीत कि आज में लखनऊ में हूँ, आज पंजाब में, आज घर में बोर हो रहा हूँ, मम्मी-पापा गोवा गए हैं, तो आपने अपने दोस्तो के साथ खूब मस्ती की आपकी तस्वीरे देखी मैंने, हाँ- हाँ जन्मदिन ट्रीट जरूर दूँगा. क्या आज आप फ्री है आदि आदि.
तस्वीरों में दिलचस्पी के कारण ही वह हमेशां अपने दोस्तों के साथ मेरी तस्वीरों पर अपना फोटोग्राफर रिमार्क जरूर दिया करता और जब साहित्य अकादमी और रमणिका गुप्ता द्वारा संपादित युद्धरत आम आदमी महिला विशेषांक के एक संयुक्त आयोजन के सिलसिले में तरुण सहरावत से बात करने का अवसर आया तो फोन के उस पार से शर्माती हुई एक तरुण आवाज़ सुनाने को मिली.
एक युवा की तरह तरुण भी सपनों और जुनून से लबरेज़ था फोटोपत्रकार था. कई स्थानों और अनोखी, अनदेखी घटनाओं को अभी उसके कैमरे में कैद होना था.
युवा प्रोफ़ेसनलस को हमेशा से खतरे की स्तिथियों में आगे रखा जाता है. युवापन की शोखी भुनाने के लिए व्यापारी दुनिया हर कदम पर तैयार रहती है. तरुण दुनिया को अपनी लेंस के जरिये देख-परख रहा था ये सिलसिला ओर गंभीर होता चला जाना था.पर ये खुशनसीबी हम लोगों को नसीब नहीं होनी थी.
भारत देश की पत्रकारिता के बारे में प्रसिद्ध पत्रकार पी साईंनाथ ने एक बार कहा था कि मैं अक्सर महसूस करता हूँ की पत्रकार सिर्फ ऊपरी पांच प्रतिशित को ही कवर कहते हैं इसलिए नीचें के बाकी पाँच प्रतिशित पर मुझे ध्यान देना चाहिए. पत्रकारिता में अपनी जान को अपनी भरोसे पर लेकर चलना होता है. युवा पत्रकार अपने जुनून के चलते दूर दराज़ के भीहड इलाकों में चले जाते हैं. वहाँ स्वास्थ्य और सुरक्षा के कोई इंतजामात उनके साथ नहीं चलते. डू एंड डोनट्स की कोई हिदायते उनके साथ नहीं होती. क्या इस तरह की लापरवाही से नाजुक स्थानों में भेजे जाने और वहाँ की परिस्तिथियों से होने वाली मौत के प्रति उन संस्थानों की जवाबदेही हैं इस देश में, उन्हें कब ये समझ में आयेगा कि देश के ये होनहार नौजवान इस तरह आकस्मिक काल का ग्रास बनने के लिए नहीं है.
किसी भी युवा और होनहार इंसान के इस दुनिया से चले जाना एक समाजिक दुःख की श्रेणी में आती है और तरुण की अकालमृत्यु भी इसी क्रम की ताज़ा कड़ी है. छतीसगढ के जंगलों से लौट कर मस्तिष्क मलेरिया, टाइफाइड और पीलिया से एक साथ लड़ते हुए तरुण थक गया था. शरीर की  असंभव और जटिल बाधाओं, जिगर, फेफड़े, गुर्दे, मस्तिष्क और कोमा को पछाड कर तरुण एक बार धीमे कदमों से जीवन में लौट भी आया और होश में आते ही सबसे पहले तरुण ने अपने कैमरे के बारे में पूछा. लेकिन १० जून को तरुण के मस्तिक्ष में तीव्रता से रक्तस्त्राव होने लगा लेकिन अंत में हमने तरुण को १५ जून को खो दिया.
अपने चले जाने से पहले तरुण ने उल्लेखनीय काम करते हुए देश की कुछ दुर्लभ तस्वीरों को कैमरे में कैद किया. माओवदियों के गढ़ अबुज्मढ़ बिहार  की आदिवासी औरते, बच्चों की खालिस मासूमियत और आदिवासी पुरषों के चेहरे पर पसरे सन्नाटे को सबने देखा. अपनी पारखी नज़र और चुस्त निर्णय के जरिये तरुण अपने काम में माहिर था. आने वाले कितने ही नवांकुर फोटोपत्रकारों के लिए तरुण सहरावत प्रेरणा का स्रोत होने का मादा रखता था.
एक कुशल फोटोपत्रकार की तरह तरुण सहरावत, तकनीक और निर्णय करने की अद्भुद शक्ति के जरिये छवियों पर कब्जा करता रहा. वह यह ठीक से जानता था कि घटनाएँ किसी का इंतज़ार नहीं किया करती. एक फोटोपत्रकार को हमेशा तत्पर रहना चाहिए और उसे अपना कैमरे को अपना बगलगीर बनाये रखना चाहिए. उसे अच्छे से मालूम था कि दिलचस्प और मज़ेदार तस्वीरें फोटोपत्रकार के त्वरित और सतर्क निर्णय का ही परिणाम होती हैं.
अथाह दुःख का सबब बनी इस आकस्मिक मृत्यु को सबने लोदी रोड स्तिथ शवदाहगृह में शुक्रवार ३ बजे अंतिम विदाई दी. यहाँ मौजूद सभी लोगों का मन इस तरुण मौत पर हाहाकार कर रहा था. मेरा तरुण से परिचय फेसबुक  और महज दो-तीन फोन वार्ता तक ही सीमित रह गया पर इस बाईस वर्षीय युवक की मासूमियत इसी दायरे के भीतर रह कर भी मैंने बखूबी पकड़ ली और तरुण की यही मासूमियत उसकी आकस्मिक मौत को और ज्यादा ग़मगीन बना रही है आज मेरे नजदीक. इस उम्मीद को पुख्ता बनाते हुए कि एक इंसान के याद किये जाने के लिए जो चीजें काफी होती हैं वे हैं कोमल मन और एक मासूम मुस्कान.
तरुण सहरावत के कैमरे से कुछ चित्र



गुरुवार, 14 जून 2012

Babba Bulleh Shah Poetry translated by Kartar singh Duggal

Translation: मेरी बुक्कल दे विच चोर
by Kartar Singh Duggal
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There is a thief in the folds of my arms.
Whom shall I tell?

There is a thief in the folds of my arms
He has, of late, escaped on the sky
No wonder there is a stir in the sky
And the world there is a hue and cry.
Whom shall I tell?

The Muslims are afraid of fire
And the Hindus dread the grave
Both of them have their fears
And keep on sharpening their staves.
Whom shall I tell?

Ramdas here and Fateh Muhammad there
This has kept them emitting spleen
Suddenly their quarrel came to an end
When someone else emerged on the scene.
Whom shall I tell?

There was furore in the flushed sky
It reached Lahore, the capital town
It was Shah Inayat who crafted the kite
It’s he who moves it up and down.
Whom shall I tell?

He who believes, he alone has known
Everyone else id floundering
All the wrangling came to an end
When Bulleh came to town.
Whom shall I tell?

बुधवार, 30 मई 2012

शनिवार, 26 मई 2012

कहानी अनीता कुशवाहा की

युवा माहिलाओं को सशक्तिकरण की सीख लेनी हो तो मुजफ्फ़रपुर के पटियासा जलाल गाँव की अनीता कुशवाहा से लेने चाहिए. अनीता इस समय मात्र २३ साल की हैं और वह पूरी तरह आत्मनिर्भर तो हैं ही बल्कि संसार भर की युवतियों के लिए प्रेरणा की  स्त्रोत भी बनी हुई हैं.
लगभग १२ साल पहले अनीता ने मधु मक्खी पालन का कम शुरू किया था. तब घर वालो का विरोध था की यह काम स्त्रियों के बस का नहीं. लेकिन अनीता नहीं मानी और अपनी माँ के सहयोग से ४.००० में दो बक्से खरीद लिए आज अनीता के पास २०० बक्से हैं. पहले ही साल अनीता को मुनाफा मिलने लगा जिसका  परिणाम यह हुआ की आज अनीता के गाँव के लगभग हर घर में मधुमक्खी पालन हो रहा है और शहद कारोबारी कंपनियों के एजेंट गाँव आ रहे हैं.
NCERT ने अनीता के इस प्रयास को स्कूल की पाठ्य पुस्तक में शामिल किया है.२००६ में UNICEF ने अनीता के काम को रेखांकित किया था तब ही संसार भर की नजरे अनीता पर टिकी और अनीता रातों रात युवाओं की ख़ास तौर पर ग्रामीण इलाकों के युवाओं की रोल मॉडल बन गयी. अनीता ने उस वक़्त शादी कच्ची उम्र में अपनी शादी के इनकार कर दिया था और आगे पढने का फैसला किया. आज अनीता समाज शास्त्र में एम् ए की पढ़ाई पूरा कर चुकी हैं.
अनीता का उदाहरण साफ़ दिखता है की निचले स्तर स्वयं के प्रयासों से पर अपने गाँव में ही रह कर न केवल खुद की उन्नति  की जा सकती है अपितु संसार भर की युवतियों के भीतर भी आत्मनिर्भरता की चिगारी को हवा  दी जा सकती है.

सोमवार, 9 अप्रैल 2012

In the name of those Empty Days/Vipin Choudhary


When even the slower pace of life, could not be hold,
Just unknown activities,
Hopeless problems himself were to harass.
The riders of mind were not provided with proper nurishment,
Those dull days, wake  the strong desire to become an ascetic.
 In Sad days,mind was automatically mapping the Himalyan.

In those very days,we stepped out in unlustful and clean premises,
Without any warm wrapping.
Bereft of father's protection and mother's love,
Those days were the orphan days to live our own.
Beyond the softness of  love and any confussion,
A far spreaded, scattered days,
Somewhere far away from the mildew days.
Away from everyday scrimmage and Tam ladder dredge,
Clean and , tidy.
Sprawling days like the clothes hung on ripcord.
Even the nights settling down at the edges of those days,
Forgot the paths of dreams.
Then only, revealed the common strategy of world and dreams.
We were sitting with our back toward worldliness,in those days,
And there was a secret agreement between worldliness and dreams

With deaf ear to every knock; the days of solitude stubborn yogi,
Then we had  donated the entity of, all the worries.
Making  proper distance; Like table-cloth laid straight, in wait,
In those days we drank enough geriatric rosy-evenings.
Slept with firmly tied corners of white sheet. 

Relentlessly to target on stone age;
We wanted to blow up our pet dreams, one by one,
In those very days. 
Also, we wanted to see ;How Big is the sky for those dreams?
Blood was dripping for years, in the courtyard of our soul.
And the resulted anguish of not realised them was reduced in compunction.
Nevertheless, the dreams have left their footprints.

When the turn of choosing something come up;
In queuing times,never falling short in the series,
We chose those peerless days.
So far, we did not have chewed a piece of them,
The days with head tied scarfs,
Go by looking at the sight of squirrel’s agility.
Yet there was not any compunction on;
Losing of  noon of the day.

The smell of gas gulped in the arteries, and we are certain.
On otherwise days  we might be packed into a bundle, with died of fear.
But those were unsurpassed days.
The pleasure to sit close to those days was delight and frowzy,
When in any  exercise; those days will be recorded,
The same days will make NOISE in our ACCOUNT.
Translated by the poet herself

शुक्रवार, 30 मार्च 2012

( हरियाणवी कविता )

( हरियाणवी कविता )
न्यू क्युकर
मीं बरसा और छाती मह  हूक सी  ना उट्ठी 
 
बारणा  गाडण  जोग्या
मोरणी  सा कोनी नाच्या
 
ईब काल भादों  मैं सीसम ना हांसी 
ना इंडी हाथां  तैं छूट भाजी
 
जंगले पह खड़ी मैं  बासी
आँख्यां तैं लखान  लागी  

लुगाइयां का रेवड़ 
घाघरां पाछै  लुख ग्या 
 
बखोरे  में गुलगुले ना दिखे
ना टोकणी बाजी
 
बेरा कोणी या
धक्कम-धक्का  किस बाबत प  होरी सै 
 
 
ऊँटनी का यो
मोसम कढ जव्गा
 
नई बहु पींघ ना चढ़ी
ना छोटी ने सिट्टी बजाई
 
ना नलाक्याँ पर  होई लड़म -लड़ाई
 
ना ताऊ ने ताई के खाज मचाई
ना गंठे- प्याज की शामत आई 
 
न्यू क्युकर
मीं बरसा और फ़ौजी छुटटी प न आया 
 
कढाव्णी  में दूध उबलन  लाग्या 
चाक्की के पाट करड़े  होगे
 
इस मीं के मौसम नें  इस बार खूब रुआया 
खूब रुआया अर जी भर कीं रुआया 
 
बीजणा भी ईब सीली बाल  कोनी  देनदा दिखय  
 
ऊत  का चरखा  भी इब ढीठ  हो गया
सूत कातन तह नाटय स

सीली  बाल सुहावै  कोनी
मी का यो मौसम इब जांदा क्यों नी

बुधवार, 25 जनवरी 2012

कलात्मकता के विभिन्न आयाम

जब पेरिस की कलाकार जुलियना सांताक्रुज हेरेरा ने देखा कि पेरिस की सड़कें बहुत टूटी-फूटी और और उदास हैं, इन्हें ताजा स्पर्श  की जरूरत है



. इसी अवधारणा को मन में सहेजें उन्होंने फैसला किया कि वह शहर की सड़कों के गड्ढों को रंगीन कपड़ों की चोटियाँ बना कर भरेगी और  उसने ऐसा किया भी. उन्होने रंगीन चोटियाँ बना कर  सड़कों के गड्ढों को भर कर आकर्षक बनाया और पेरिस की ग्रे सड़कों से अपनी कला से सराबोर कर  रंगीन कर दिया.