शनिवार, 8 नवंबर 2008

आने वाले कल में

विज्ञानं के क्षेत्र में कई तरह के प्रयोग होते रहे हैं। अमेरिकन विज्ञानिक समुदाय के अनुसार मानव इतिहास की सबसे बडी खोज खनिजो के लिये बनाई गयी पिरियोडिक टेबल है। दुसरी बडी खोज लोहे की खोज है, तीसरी रेडियो की खोज तथा चौथी ग्लास की खोज तथा पाँचवी खोज सतहरवी शताबदी में ओपटीकल माईकरोसकोप को माना गया है। छटी खोज कंकीट की खोज है।
वैझानिकों द्वारा कई तरह की खोजबीन होती रही हैं, अब वे सामान्य कोशिकाओं को इनसुलिन बनाने वाली कोशिकाओं में परिवर्तित करने की एक नई तकनीक इजाद की है। जिसका नाम है डारेयकट रिपरोगरामिंग। शरीर की प्रमुख कोशिका जिसका नाम सटैम सैल है जो अब तक ओरगन और टिश्यु ट्रांसप्लांट में कोई मदद नहीं करते थे अब वे
शुगर की पुरानी बिमारी में जिसमें कि पैनकरियेटिक कोशिकाऐ शरीर के इमयुन तंत्र द्वारा गलती से नष्ट हो गई थी में मददगार होगीं।
हार्वर्ड मैडिकल वैझानिक मेलटन, जो कि विश्व के बेहतरीन सैटम सैल के जानकार कहते हैं ये जो नई कोशिकाऐ हैं ये किसी चूहे के पूरे जीवन भर स्थायी रहती है। वैझानिकों ने सैटम सैल को यह दिखानें के लिये गिना कि किस तरह टिश्यु और औरगन दुबारा बनाये जा सकते हैं
इनसुलिन पर प्रयोग लगभग एक दशक से चल रहे हैं। १९९६ में डोली नामक भेड भी इसी खोज का ही परिणाम थी

मंगलवार, 28 अक्टूबर 2008

जीवन के भीतर स्त्री


हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा २३ अकटूबर में आयोजित महिला विमर्श पर चंदीगढ में आयोजित विशिष्ट अतिथि के रूप में आलोचक निमला जैन ने कहा समाज में महिलाओं की भिन्न भिन्न समस्याऐं हैं। समाजसेविका निमल दत्त ने कहा महिलाओं की दशा अभी भी शोचनीय है। केवल कुछ महिलाओं की स्तिथी ही सुधरी है उससे ही हमें संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिये। मैत्री पुष्पा ने बेहद सहज ढंग से अपनी रचना प्रक्रिया और अपने बचपन के दिनों को वहाँ उपस्तिथ लोगों के साथ शेयर किया। प्रख्यात रोहिणी अगवाल ने कहा पराम्परागत प्रथाये अगर बेडियाँ बन जायें तो हमें उन्हें छोड देनी चाहियें। वहाँ साहित्य अकादमी के निदेशक देश निमोही, पदीप कासनी, कलम सिगं कूण्डु उपस्तिथ थे।अपहरान दो बजे कवियत्री सम्मेलन शुरू हुआ जिसमें रोजलिन, सुशीला, सरोज, नमिता राकेश, आशिमा कौल, विपिन चौधरी ने कविता पाढ किया।

जीवन के भीतर स्त्री


लम्बी चौडी जायदाद नहीं
एक घर चाहती हैं वे केवल
शायद पूरा घर भी नहीं
बस एक चुल्हा ताकि
घर भर को खिला कर
संतुष्ट हो, सो सके
कल के भोजन के बारें में
फिक करते हुये।
चाँद की कहानी कहते हुये वे चाँद पर जा पहुँचती हैं
अपनी कमनियता के किस्सों को
हवाओं में बिखरते हुये
कुछ न करते हुये भी
बहुत कुछ कर रही होती हैं वे
अपनी सृजनशीलता से रच रही होती है
स्वपनिले संसार की रूपरेखा
हमेशा बचाये रखा है उन्होनें
घर का सपना
आँधी तुफानों के बीच भी
जितनी शिद्दत से वे प्रेम करती है
उतनी ही शिद्दत से घृणा।
मासुमियता, उदारता, करुणा के विष्षणों के साथ
वे बेहद खूबसूरत दिखाई पडती हैं
कभी कभी वे सच के इतने करीब होती हैं
की छू सकती हैं अपनी आत्मा का पवितर जल
कभी वे बिना पक्षपात के इतनी झूठी हो सकती है
की आप दुनिया जहान से नफरत करने लगें
अपनी अनेकता के साथ
राधा, मीरा, सीता का बाना ओढती हैं
एक देश में अरृणा राय तो
दुसरे देश में सु कि
किसी तीसरे देश में शीरीन आबादी बन
अपने आप को सिदध कर रही होती हैं
उन्कें यहाँ हक्कीत और स्वपन में अधिक अंतर नहीं है
यही एकमात्र कारण है
हक्कीत को सपना और
सपने को हक्कीत समझनें में वे भूल कर देती हैं
जीवन का नब्बे प्रतिशत प्रेम
उन्के करीब से हो कर गुजरता है
उन्का साथ इन्दरधनुष, तितली, फुल, कविता,
खुश्बू, घटाओं और जिंदगी का साथ है
उन्की आखें जिस क्षण तुम्हारी ओर
देखती है वे क्षण ठहरे रहते हैं हमेशा
तमाम उमर तुम उन क्षणों के बीच से होकर
गुजरना चाहते हो तुम
कभी वे मुस्कुराहट बन
तस्वीर के चारों कोनों में फैल जाती हैं
तो कभी आँसुओं की तरह
शून्य में सिमट जाती हैं
स्त्री कभी बिखरती नहीं
अरबों खरबों अणुओं में जुडती नहीं
बिम्ब से मूरत में तबदील हो
माँ, बहन, बेटी बन जाती है
और कविता के अंदर
हमेशा जीवित रहती हैं
संवेदना बन कर।




गुरुवार, 9 अक्टूबर 2008

चिकित्सा और नोबेल

सन १९०१ से शुरू हुये नोबेल पुरुस्कार हर साल शांति, साहित्य, भौतिकी, रसायनशास्त्र, चिकित्सा के लिये मिलता है। भारत में अब तक गुरदेव रविन्द्रनाथ टैगोर को साहित्य, चन्द्रशेखर रमन को भौतिकी के लिये, डा हरगोविन्द खुराना को चिकित्सा के लिये, मदर टेरेसा को शांति के लिये, सुबरामनयम चदशेखर को भौतिकी, अमर्यत्य सेन को अर्थशास्त्र के लिये दिया गया है। वर्ष २००८ के लिये तीन युरोपियन वैज्ञानिको को सरवाईकल कैंसर और अच आई वी के लिये जिम्मेदार विषाणुओ की खोज के लिये दिया गया है। १९८१ में जब से ऐडस के बारे में पता चला तब से ही इस बिमारी को लेकर पूरी दुनिया में भय व्यापत है।१९९८ में जूर हयूसेन ने सरवाईक्ल कैंसर से गस्त महिला के खून से विषाणु की खोज की। उन्होनें पाया की एच पी वी नामक विषाणु का डी न ए, पीडित व्यक्ति के डी न ए के साथ जुड कर अनयांत्रित रूप से बढता रहता है। उनकी इस विषाणु की खोज के बाद से ही इसके खिलाफ दवाईयाँ इजाद करने में मदद मिली। १९८३ में बरे सिनूसी और लक मोंटेगनियर ने ऐडस के रोगी के लिफ नोडस को इकटठा कर उनमें से एच आई वी विषाणुओं को खोज निकाला। इन तीनों वैज्ञानिको द्वारा खोजे गये इन दो नये विषाणुओ की मदद से उनकी लिये रोगपतिरोधक दवाईयाँ बनाई जा सकी। इन तीनों चिकित्तसकों के योगदान से चिकित्सा जगत में हो रहे अनुसंधान में आगे भी मदद मिलती रहेगी।

शुक्रवार, 19 सितंबर 2008

पत्थर होती दुनिया

जीवन की इस आपा धापी में कई परम्परागत मुल्य कम होते जा रहै हैं। मानवीय संवेदनाऐ मानों खत्म ही हो गई हैं। सभी लोग बस पैसों की तरफ दौड रहें है। जो मुल्य कभी हमारे लिये बेहद मुल्यवान थे अब वो ही हमें बोछ लगने लगे हैं। पर जब हम हर तरफ से हम मुसीबत में घिर जाते हैं तब ये मुल्य हमेशा हमें सही रास्ता दिखायेगे ऐसा हमारा विश्वास है। संगीत, साहित्य जैसी कई चीजें अब भी है हमारे पास जो इस पत्थर होती दुनिया को पत्थर होने से बचायेगें।

पत्थर होती दुनिया
मुहावरे अपने अथ
गढने में
नाकाम रहे हैं
शब्द अपनी संवेदनाओ
की तह तक
नहीं पहुँच सके हैं
रोश्नी, अधेरों की
बगलगीर हो गई है
मौन
चीखनें चिल्लानें को
मजबूर हो उठा है।
अवतारों के चमकते चहरे स्याह
पडते लगे हैं
बरसों स्थापित रंग तक
चुराये जा रहे हैं
जीवन राही को
अपनी मंजिल नहीं मिल
सकी है
इस सदी और अवसाद से भरे
दुरूहपुण समय मैं
मैं लिख रही हुँ
कविता
शायद
शब्दों के ताप से
पिघल सके यह
पत्थर होती दुनिया।

सोमवार, 8 सितंबर 2008

गुरु मंञ


हम सभी एक उद्देश्य लेकर इस धरती पर आते हैं। हमारे पास जीने का जितना भी समान है हमें उसी से ही काम चलाना पडता है। इंसानों से लेकर प्रकर्ति के पास अपने जीवन यापन का सभी साजों सामान मौजुद है। सभी जीवित चीजें अपनी निर्धारित गति से ही चलते हैं। आज से ही नहीं आदि अन्नत काल से ही यह नियम रहा है।
धरती पर पायी जाने वाली सभी वस्तुओं को ध्यान से देखने पर पता चलता है कि हम सभी अपने-अपने दायरे में सुरक्षित हैं यानि हम सभी के पास अपने लिये गुरु मंत्र हैं।
प्रस्तुत है इसी विषय पर एक कविता

गुरू मंत्र


जिंदगी

अपनी मंजिल

खुद ब खुद तलाश लेती हैं

पगडंडियों को कभी कमी

नहीं रही कई जोडी पाँवों की


नदियों को भी हासिल हैं

चप्पुओं की हलचल


पृथ्वी के

पास हैं

मौसमों की बदलती परिक्रमा



आसमान ने भी

जुटा रखे हैं

चाँद, सूरज

ढेर सारे तारें


नन्हें बीज भी

ढूंढ लेते हैं

अपने विस्तार के लिये

थोडी सी जमीन


अपने-अपने

हितों को साधने का गुरू मंत्र

हम सभी के पास सुरक्षित है।

बुधवार, 3 सितंबर 2008

बाढ की विभीषिका

बिहार में इन दिनों जबरदस्त बाढ का प्रकोप जारी है। हर रोज बाढ की विभीषिका की तस्वीरें अखबार में देखने को मिलती है। सवाल यह उठता है, हर साल आने वाली इस बाढ की रोकथाम की व्यवस्था के लिये सरकार के पास कोई कारगर उपाय नहीं है। सभी प्राकृतिक आपदाओं की मार गरीबों पर ही पडती है। उन्हें ही अपने घर से बेघर होना पडता है, अपने ढोर-डंगर सभी को लेकर घुटनें तक के पानी को पार करते हुये गाँव की सीमा को पार कर जाना पडता है दोबारा लौट कर आने के लिये और अगले साल फिर से उसी त्रासदी का शिकार होने के लिये।उस पर राजनेताओ का हवाईजहाज से हालात का जायजा लेना भी एक नाटक ही लगता है।
नाटक
कविता के बदले
उन्हें
उम्मीद थमाई जा रही है
हौसलों के बदले, दुआ

जीवन जैसा ही कोई
नाटक खेला जा रहा है
इस वक्त
अधिकतर सपने
अँधेरों की उपज हैं
जो जरा सी रोश्नी में आते ही
लडखडाने लगते हैं

कविता
प्रतीकार आवेगों का पतिकारों
कभी नहीं रहीं
उसका
इतना बुरा अंजाम
इतिहास में कभी नहीं रहा

केन्दीय सत्ता के
शिखर पर बैठ
अपनें बौनेपन पर
चहकनें वालों को
उनकी हैसियत दिखाने वाला
अब कोई नहीं

आईने
इतने कमजोर हो चले हैं
जो चमकिले चेहरों के
सामने आते ही
तडकनें लगते हैं
बर्बरता अपने चाकु तेज कर रही है
हम निहत्थे खडे हैं
कुछ तो थामों
इस अहिंसावादी देश के इतिहास में
कभी तो हिंसा का बेखौफ नमुना दज हो
समय के साथ न चलना ही
अकर्मण्यता का प्रतीक माना
जाता हो तो कैसा परहेज
वक्त कुछ न कुछ तो सिखा ही रहा है
चाहे बुराई का प्रथम पाठ ही
यह तो तय है ही
कहीं भी हो
बारूद का धुँआ हर घर में पँहुच ही जाता है
और हमारी सहनशीलता को दाद दीजिए
उसी धूयें में हम
टीवी देखते, बतियाते
सपनों का लम्बा बाना ओढ सो जाते हैं
कल की बेहतरी के बारे में सोचते हुये।

बुधवार, 27 अगस्त 2008

प्रार्थना का वक्त


इस भागदौड से भरे माहौल में जीवन की रफतार बहुत तेज होती जा रही है। सभी स्थापित मूल्य बदलते जा रहे हैं। पैसा कमाने और अंधाधुंध आगे बढने की होड में हम आगे और आगे बढते जा रहे हैं अपने मूल्यों की तिलांजली दे कर। सादा जीवन और उच्च विचार की अवधारणा खतम होती जा रही है। भडकिले जीवन अब लोगों की दिनचर्या में नजर आने लगा है। अब किसी त्योहार में वह पहले वाली सादगी नहीं रही, लोग आडम्बर को महत्व देने लगे हैं। ऐसे माहौल में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो जीवन को उसी उच्चता से जीते है जो जीवन को जीने का सही तरीका है।

प्रार्थना का वक्त


यह प्रार्थना का वक्त है
सात्विक अहसास के साथ
हाथ जोडकर खडे हो जाओ
यही समय है जब
सभ्यताएं अपनी तयशुदा
भूमिकाएं छोडने के लिए
विवश हो चुकि हैं
भव्य और पुरानी इमारतें
अपने ही बोछ से
छुटकारा पाने के लिए
धीरे-धीरे दरक रही हैं
पिछले हफ्ते के सबसे अमीर
आदमी को पछाडकर
पहले पायदान पर जा विराजा
है कोई अभी-अभी
नंगे पांवों को कहीं जगह नहीं कीमती जूते जरूरत से ज्यादा
जमीन घेरते जा रहें हैं
अंधेरे को परे धकेल
सजसंवर कर रोश्नी सडक पर
आ गई है
उससे दोस्ती करने को
लालायित हैं कई हाथ
अपने भी
वाकई, यही प्रार्थना का
सही वक्त है।

गुरुवार, 21 अगस्त 2008

आज का यह दिन


यूँ तो हर दिन कि शुरूआत सूरज के उगने से ही होती है और हर दिन का अवसान सूर्य के अस्त होने से होता है। हर दिन की अलग कहानी होती है, कोई दिन अपनी शुरूआत में ही भारी दिखाई देता हैं, तो कोई दिन खुशनुमा तबियत लिये पैदा होता है। इनहीं दिनों के तयशुदा घंटों के बीच ही हमें अपनी दिनचर्या चलानी होती है। कोई दिन लाख कोशिशों के बावजुद सरकता नहीं दिखाई देता तो कुछ दिन तेजी से गुजर जाते हैं। कई दिन ऐसे होते हैं जिनहें हम धरोहर की तरह संजो कर रखना चाहते हैं और कुछ दिन ऐसे भी होते हैं जिनहें हम कभी याद नहीं करना चाहेंगे।
आज का यह दिन
मेरे लिये नहीं है
अमूमन कोई भी
कोई भी दिन मेरे लिये
नहीं होता
फिर भी
दिन की मटमैली चादर
ओढ कर,
रात का
काला लिहाफ
बिछा कर
बना ही लेती हूँ
अपने लिये
पूरे दिन का लम्बा तंबू।
पंक्ति में खडे
आने वाले कलैन्ङरी दिनों में से
एक माकूल दिन
अपने लिये छाँटकर
बाकि बचे हुये
साबूत दिनों को
दुनिया को सौंप कर
शुभकामनायें देती हुयी
लौट पडती हूँ
अपनी बहुत पहले से जमा की
हुई शामों के बीच।

शुक्रवार, 15 अगस्त 2008

बहुत पहले से


बहुत पहले से ही कुछ चीजों का होना तय होता है। हर चीजों को घटना एक निश्चित पक्रिया है, हम रोक नहीं पाते उसे तो कोई अपनी किस्मत को कोसता है तो कोई मातम मनाने लगता है। हमारे पास तब केवल एक ही रास्ता है जिंदगी को उसी तरह बहने दो जिस तरह वह बह रही है। उसमें कोई अडचन न आने पाये। हमें केवल काम करने का ही हक है, फल की इच्छा हमें नहीं करनी चाहिये। बहुत पहले से
पक्षियों ने उडान भरनी नहीं सिखी थी
मनुष्यों की पलकें आज सी
भारी नहीं थी।
शोर अपने पाँवों तले
कुचलने की ताकत नहीं रखता था
तब से ही शायद या
उससे भी पहले
ठीक-ठाक नहीं मालूम
इतिहास का लम्बा सूत्र थामें
और वर्तमान की राह पर खडी यह सब कह रही हूँ
तय था
जब से ही
पत्तों का झरना,
प्रेम का यूँ बरबाद होना,
हसरतों का यूँ जमा होना।
बहुत पहले से
पक्षियों ने उडान भरनी नहीं सिखी थी
मनुष्यों की पलकें आज सी
भारी नहीं थी।
शोर अपने पाँवों तले
कुचलने की ताकत नहीं रखता था
तब से ही शायद या
उससे भी पहले
ठीक-ठाक नहीं मालूम
इतिहास का लम्बा सूत्र थामें
और वर्तमान की राह पर खडी यह सब कह रही हूँ
तय था
जब से ही
पत्तों का झरना,
प्रेम का यूँ बरबाद होना,
हसरतों का यूँ जमा होना।

शुक्रवार, 8 अगस्त 2008

खुद को दोहराते हम




जीवन का कैनवास बहुत लम्बा चौडा है। हम ढेर सारी चीजें समेट कर चलते हैं जिनमें से कई चीजें पीछे बहुत पीछे छुट जाती हैं तब हम ठहर कर सोचते है कि हमारे लाख चाहने पर भी ऐसा क्या हुआ की वह वस्तु हमें नहीं मिली। तब हार कर हम ढुढतें हैं कोई मंत्र जो जीवन में फिर से रोशनाई भर दे और नहीं तो कम से कम जीवन को जी भर सके। हम अंधेरे से पार नहीं जा सकते तो कम से कम उस से दोस्ती तो कर सकते हैं। सपनें जब टुटतें हैं तब गहरा जखम देतें है तब हमें ही हौसले का दामन धामना ही पडता है और फिर समय सबसे बडा मरहम है जो अपना काम बेखुबी से करता चलता है। तब हमें पता लगता है की जीवन से बडी कोई चीज नहीं है उसके आगे सब चीज छोटी है।


खुद को दोहराते हम



क्या केवल इतिहास ही खुद को दोहराता है


हम नहीं
सपनों के बेल बुटों पर
चढते फिसलते, चोट खाते हम
अपनेआप को साबूत बचाये रखनें
की कोशिश में नाकामयाब हम

स्मतियों के खूबसूरत मोतियों से
जीवन से हर छोटे बडे खानों को
भरने में लगे हम

पीछे छूटे हुए पर अफसोस जताते हुये
किसी नई पहल की चिंगारियों के
इंतजार में हम

जीवन की वध-स्तंभ पर टकरा-टकरा कर
लहुलुहान होते हम
खुद को बार-बार दोहराने की जददोजहद में
बेतहाशा खच होते हम

लाख कोशिशों के बाद भी नहीं रोक पाते
खुद को दोहराने से।

रविवार, 3 अगस्त 2008

जीवन और उसकी उजास


जिन्दगीं कभी एक सी नहीं रहती। तमाम तरह के उतार चढाव जीवन में आते रहते हैं। कुछ सपनों, इच्छाओं, उम्मीदों को मिला जुला कर बनती है जिन्दगीं। बचपन से लेकर बुढापे तक कई आस के सहारे हम चलते हैं। इसी बीच कई बार हम टुटनें के कागार पर खडे होते हैं फिर कोई शक्ति हमें आकर धाम लेती है और जीवन आगें चल निकलता है। प्रेरणा देने वाली कई शक्तियाँ हमारे आस पास मौजुद रहती हैं, जिनसे हम अपने आप को मजबुत बनाते हैं। इसी तरह कई नाकारात्तमक शक्तियाँ भी हमारे नजदीक होती है जो अवरोध पैदा करने के लिये तैयार रहती हैं। जीवन के इस ताने बाने के बीच हम चलते रहते है अपने सपनों को साथ के कर और उम्मीद करते हैं की वे एक दिन जरुर पुरे होगें।

जीवन और मैं
यह जीवन जब
सत्य कथा के नजदीक जा पहुचाँ
तब साफ हुई
कई धुंधली चीजें
फिर देखा
जीवन का विनयास कितना लम्बा चौडा है
और मेरा कितना सामान
समेट पायेगी
यह जिन्दगीं।

अब मेरे नजदीक
यह रहस्य नहीं रहा की
जीवन का गोल चेहरा
टटोलनें के लिये
दसों ऊँगलियाँ चाहिये
साबूत की साबूत।

बसंत तो कभी पत्तझर
अंधेरा तो कभी उजाला,
आँसु तो कभी मुस्कान,
यह अंजुरी कभी भीखाली नही रही।


जिस जीवन के साये तले मैं
सांस लेने का दंभ भरती हुँ
वह खुद भाग दौड कर
अपनी जगह शक्ति सुनिश्चित करने में
जुटा हुआ है।


जीवन और मृत्यु के
अंतराल के बीच
सार्थक करना है
मुझे स्वयं को।


यही कारण है कि मैं
इन पक्तियों के लिखे जाने तक मैं
जीवन को जीने की
भरपुर कोशिश में हुँ।

सोमवार, 28 जुलाई 2008

परछाई


इस जीवन में हर कोई परछाईयों के पीछे भागता रहता है। कभी ये परछाईयाँ तेज भागती है तो कभी सामने आ कर अपना हिसाब किताब माँगती हैं, तमाम जीवन इन्हीं परछाईयों के आगे पीछे घुमता रहता है और अंत में खतम हो जाता है। हर परछाई का अलग रुप-रंग है इसीलिये हमें कोई कम तो कोई ज्यादा पसंद आती है। कई बार ऐसा भी होता है ये परछाईयाँ कभी हमसे ही दूर भागती दिखाई देती हैं तो कभी हमारे पास आकर हमें ढाँढस बढाने लगती हैं।

परछाईयों के पीछे-पीछे
हमेशा परछाईयों के पीछे-पीछे
भागती रही थी मैं
बरसों बरस
लाभ-हानि, नफा-नुकसान और दुनियादारी
के तमाम प्रलोभनों को बहुत पीछे छोड कर
हर परछाई
खंडहरों के करीब ला कर
छोड देती रही
जिसके अनेक खिडकीयाँ, अनेक दरवाजें तो थे
पर वहाँ हवाओं के आने जाने का
सीधा-सरल रास्ता भी साफ नहीं था
बाहर निकलनें की जद्धोजहद में
दीवारों से सिर टकरा-टकरा कर
हवाओं को दम तोडते हुये
देखा है मैनें अकसर
हर खंडहर के दरवाजे पर
एक सी मुहर की पहचान
भीतर भयावह अंधेरे का बसेरा
गरदन पकडती घुटन
और अवसाद में डुबी हुई उमस
का जमावाडा

बडी कोशिशों के बाद खंडहरों के आकर्षण से दूर
निकल पाती हुँ
तभी एक नई परछाईं
पवित्रता का उज्जवल बाना
ओढ कर
अलग आकर्षण के साथ
खडी नजर आती है
शायद अब की बार फिर
किसी परछाईं के साथ
कदम मिलाती हुई चल दुगीं
उन्कें भीतर मौजुद खंडहरों
के नजदीक।
सच, परछाईयों का तिलिस्म बहुत गहरा है।


सोमवार, 21 जुलाई 2008

यह धुआँ कहाँ से उठता है

दिलीप कुमार की बेहतरीन अदाकारी, सुचित्रा सेन की मासुमियत और वैजयतीमाला का बेहतरीन नृत्य।शरतचंद्र चटर्जी की कालजयी कहानी देवदास को लेकर विमल मित्र ने जो इतिहास रचा था उसे दोहराने की कोशिश में हमारे कई प्रतिभावान फिल्म निदेशक असफल रहे हैं। देवदास का संगीत दिया था सचिन देव बर्मन ने। इस फिल्म के सभी गीतों ने गजब ढाया था कोई कैसे भुल सकता है मितवा मितवा के दर्द भरे बोल थे, आगे तेरी मरजी का खूबसूरत गीत और जिसे तू कबुल कर ले वह कली कहाँ से लाऊँ का अवसाद से भरा गीत। दिलीप कुमार इस फिल्म में महज २६ साल के थे और देवदास में काम के बाद ही ट्रेजेडी किंग का खिताब मिला था। उन्की चुप्पी उन्कें शब्दों पर भारी पडती दिखती रही हमेशा। वे देवदास के किरदार में इतना ढुब गये थे उन्हें साईकोलोजिसट की मदद लेनी पडी थी।
देवदास की कहानी अतिभावनात्तमक कहानी है। शरतचंद्र ने खुद इस तरह की नियती को अच्छा नहीं माना था। जीवन कुछ सीधी सीधी रेखा में आगे बढता तो शायद उसमें असाधारणता न होती। एक सपने के पूरे होने की राह में जो अडचन आती हैं उन्हीं से टक्कर लेते लेते एक जीवन अस्त हो जाता है और दुसरी ओर एक शमा है जो शायद जलने के लिये ही इस दुनिया में आयी है। मुझे इस फिल्म के दो सीन हमेशा याद रहेगें एक, जब बडा होकर देवदास, पार्वती से मिलने ऊपर जाता है और लालटेन की रोशनी में पार्वती से पुछता है कैसी हो पार्वती और दुसरा जब रात में देवदास के पास छुप कर आती है तो देवदास जिस भोलेपन से कहता है तुम अकेली रात में मेरे कमरे में आयी हो, अब मैं तुम्हें बदनाम करूँ। वो सपने ही तो थे जो देवदास के इतने करीब बस गये थे वो लौट कर नहीं जाना चाहते थे। वो अपने बसने के लिये थोडी सी जमीन मागतें थे। दुनिया वो भी उन्से छीन लेती है। तब वे सपने रोते बिसुरते हुये दूर दूर तक बिखर जाते हैं और साथ ही टुट जाता है देवदास भी। बाकी बचा रह जाता है धुंआ जो हमेशा किसी न किसी चाहने वाले को लीलता रहेगा।
धुआँ
क्या हम कभी नहीं जान पायेगे
कि भीतर का यह धुआँ कैसे उठा
क्योंकर उठा
क्या कुछ जला है भीतर
क्या सुलगा रहा है
भीतर
एक दिल ही तो है
शायद दिल ही है
यकिनन दिल ही है
दिल ही सुलगने की कुरवत रखता है
या सपने सुलग सकते है
मामला दिल का हो तो
कई चीजें अनायास ही उससे आ जुडती हैं
और सुलगने का सामान बनती हैं
इस सुलगने समय में
हमारी तनहाई ही मेरा सबसे बडा हथियार बनती है
तब भीड के दिलासा देने के सभी दावे खोखले पड जाते हैं
कुछ सपने कुछ हक्किते
कुछ बातें, थोडी खामोशी
का लेखा जोखा जो हमारे पास सुरक्षित है
जो सुलग सकते है यह आग उन्हीं को
जलाती है जो जल सकते हैं
जो भस्म हो सकते हैं
जो राख में तबदील हो सकते हैं
जो एक लम्बी उमर धुँये को अपने में समाये रख सकते हैं।

शनिवार, 12 जुलाई 2008

महानगर


महानगरों में बढते प्रदूषण के कारण जनसाधारण की परेशानियाँ बढती जा रही है। हरित भूमि की कमी होती जा रही है। पिछले पाँच वषों में जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण में कमश ७८, ७६ की वृदि हो रही है। गंगा और यमुना में प्रदुषण गहराता जा रहा है। गंगा एकशन पलान को शुरू हुये कितने साल हो चुके हैं पर कोई ठोस नतीजा सामने नहीं आ सका है। महानगरों में करवाये जाने वाले सर्वेक्षण से पता चलता है कि सबसे ज्यादा वायु प्रदूषण हैदराबाद में है, जल और ध्वनि प्रदूषण बेगलूर में है। इसके अलावा जल की कमी महानगरों की सबसे बडी समस्या है। जल समस्या का सबसे बेहतर समाधान जल संरक्षण ही है।

महानगर पर एक कविता
महानगरों में बने रहते हैं हम
अपने आप को लगातार
ढुँढते हुये
महानगर के बोझ को
अपने कमजोर कंधों पर ढोते हुये
अभिमान से अभिज्ञान के लम्बे सफर में
बेतरतीब उलझे हुये हम
महानगर की धमक हमें
हर कदम पर
साफ सुनाई देती है
इसकी चाल में बडा बेरहम शोर है
वह घंटों अपने आप से ही बोलता बतियाता है
किसी जीवित शख्स के साथ
दो पल बतियाने का समय नहीं है उसके पास

हम महानगर के शयनकक्ष में आ गये हैं
यहीं अपने आप को पूरी तरह खोने का
सही सही मुआवजा लेगें

दूर तक बिखरी हुई उदासी से खुशी के
बारीक कणों को
छानते हुये
महानगर के सताये हुये हम
अपने गाँवों कसबों से
बटोर लायी हुई खुशियों
को बडी कँजूसी से खर्च करते हैं

महानगर के करीब आने पर हमें
अपने बरसों के गठरी
किये हुये सपनों को
परे सरका कर उसकी कठोर जमीन पर
नगे पाँव चलनें की आदत डालनी पडी है

उसके पास खबरों का दूर तक
फैला हुआ कारोबार है
पर जो महीन खबरें महानगर के पथरीले पाँवों के
नीचें आकर कुचली जाती हैं
वही हम सबके लिये बडी पीडा का
सबब बनती हैं
ये विशाल नगर
एक हाथ से देने में आना कानी
करते हैं पर
दोनों हाथों से छीनते हुये
जरा भी संकोच नहीं करते
अपनी अदभुत विशेषताओं के कारण
एक साथ कई रंग दिखाने में माहिर है महानगर

फलाई ओवर के नीचे से गुजरते हुये
एक रेडिमेड उदासी हमारे अगल बगल
हो लेती है
लम्बी चौडी इमारतें, मैट्रो हमें
तुम्हारी बादशाहत और
झोपडी हमें अपने फक्कडपन का
अहसास दिला देती है

तुम्हें लाघते हुये चलते चलना
अपने आप को
बडा दिलासा देना है
तुम्हारी चाल बहुत तेज है महानगर
पर तुम्हें शायद मालुम नही
एक समय के बाद
दौडते फाँदते, इठलाते खरगोश की
चाल भी मंद पड जाती है।

रविवार, 27 अप्रैल 2008

कोलकाता से लौटकर






कोलकाता महानगर मेरे लिये हमेशा से ही आकर्षण का विषय रहा है। कोलकाता का नाम सुनकर जहन में सबके पहले विमल मित्र का वह पात्र याद आता है जो स्यालदाह रेलवे स्टेशन पर अपना भाग्य आजमानें के ऊदेश्य से कोलकाता आता है। इसके अलावा मेरी कई पसंदीदा शख्सियतों जिनमें स्वामी विवेकानंद, सुभाष चंद बोस, गुरूदेव रविन्द्र नाथ ठाकुर, सत्यजित राय, शरत चंद चटोपाध्याय, विमल मित्र का जन्म स्थान भी कोलकाता है। कोलकाता के लोगों का साहित्य, संस्कृति के प्रति रुझान आदि के बारे में भी बहुत कुछ पढा सुना था। वहाँ जाने का सौभाग्य उपलब्ध करवाया भारतीय भाषा परिषद की पत्रिका वागर्थ द्वारा आयोजित वर्ष २००७ नवलेखन कविता प्रतियोगिता ने। कोलकाता के बेहद खूबसूरत वातावरण, कविता का सम्मान और नये कवि दोस्तों के साथ ने एक अदभुत माहौल बना दिया था। दो दिन के इस कार्यक्रम में हम सभी कवियो ने एक दिन के सफर की थकान ऊतारी और दुसरे दिन
कोलकाता के बाजारों, ईडन गाडन और विकटोरिया पैलेस के दर्शन भी किये। भारतीय भाषा परिषद के भवन के तीसरी मंजिल पर केवल दो दिन की वो गतिविधियों हम सभी को ताउम्र याद रहेगी। हम सभी भारत के कोने कोने से कोलकता पहुचें थे। बलराम कांवट राजस्थान से, अमित परिहार इलाहबाद से, अलिंद वाराणसी से, मैं हरियाणा से, अच्युतानंद दिल्ली से, पुशपेंद फालगुन नागपुर से, नताशा बिहार से, ज्ञान प्रकाश वाराणसी से आये थे। दो दिन के इस कार्यक्रम में हम सभी कवियो ने एक दिन के सफर की थकान ऊतारी। दुसरे दिन यानि २७ जनवरी २००८ को सुबह पुरस्कार वितरण समारोह परिषद की दुसरी मंजिल में आयोजित हुआ। जिसमे अमित परिहार को प्रथम पुरुस्कार मिला उनकी कविता दशरथ माझीं के लिये, दुसरा पुरुस्कार बलराम कावट को गढरिया के लिये, तीसरा पुरस्कार अच्युतांन्द को उनकी कविता आँख में तिनका या सपना के लिये दिया गया साथ ही चार प्रेरणा पुरस्कार भी दिये गये जिसमें ज्ञान प्रकाश को, मिथिलेश राय को ईश्वर की आँख के लिये, नताशा को वह तोडती पत्थर के लिये अलिंद उपाध्याय को घंटी, विपिन चौधरी को पुलिया पर मोची के लिये पुष्पेन्द्र फाल्गुन को सो जाओ रात के लिये दिया गया। छविनाथ मिश्र द्वारा पुरस्कृत कवियो को शाल उठा कर सम्मानित किया गया और बाद में पुरस्कृत कवियों द्वारा समाज को बेहतर बनाने में साहित्य की भूमिका पर संशिप्त वक्तव्य दिया गया। श्री छविनाथ मिश्र द्वारा अध्यक्षीय भाषण हुआ। सम्पूर्ण कार्यक्रम का संचालन वागर्थ संपादक एंकात श्रीवास्तव ने किया और दुसरे दिन कोलकाता के बाजारों, ईडन गार्डन और विकटोरिया पैलेस के दर्शन भी किये, फिर रात को लौटकर हम सभी कवियों ने देर रात तक कविता और गीत संगीत की महफिल सजाई। अगले दिन हम सभी लौट आये कोलकता से अमुल्य यादों को समेट कर।
प्रस्तुत है वागर्थ द्वारा आयोजित कविता प्रतियोगिता में पुरुस्कृत मेरी कविता


पुलिया पर मोची

यह पुलिया जाने कब से है यहाँ
और पीपल के नीचे बैठा यह मोची भी
न पेड की उम्र से
मोची की उम्र का पता चलता है
न मोची की उम्र से पेड का
और न पानी की गति का
जो पुल के नीचे
बिना लाग लपेट बहता है

जब बचपन में इस पुलिया पर से गुजरते हुये
चलते चलते थक जाने पर
माँ की गोदी के लिये मचलती थी
और इस पुलिया में अपनी परछाई
देख खुश होती थी
तब भी यहीं मोची
जूते गाठंता दिखता था
तब पुलिया का
मोची का
इतना आकर्षण नहीं था
बचपन कई दुसरी ही चीजों
के लिये बना है

उसके कुछ वर्षो के बाद
कालेज जाने का एकमात्र रास्ता भी
इसी पुलिया से होकर गुजरा
तब जीवन की बारीकियों के बीच
मोची से मानवीयता के
तार जुडे तो सोचा
क्या यह मोची गरदन झुकाये
इसी तरह बैठे रहने के लिये जनमा है
दुनिया की यात्राऐं कभी खतम नहीं होती
पर यह मोची तो मानों कभी कदम भर भी
न चला हो जैसे

अब जब
दुनियादारी में सेंध लगाने
की उम्र में आ चुकि हुँ
तो भी पुलिया वहीं मौजुद है
वहीं मौजुद है मोची
अपने पूरी तरह रुई हो चुके बालों के साथ

बचपन से अब तक
उम्र के साथ-साथ
आधुनिक्ता ने लम्बा सफर
तय किया है
उसके पास तो वो ही
बरसों पुरानी
काली, भूरी पालिश है
चमडे के कुछ टुक्डे और
कई छोटे-बडे बुश
सिर पर घनी छाया
थोडी झड गयी है और
पुल का पानी जरुर कुछ कम हो गया है
पर जिदंगी का पानी
आज भी उस मोची के
भीतर से कम हुआ नहीं दिखता


शहर का सबसे सिध्हस्त मोची होने का
अहसास तनिक भी नहीं है उसे
हजारों कारीगरो की तरह ही
उसके हुनर को कोई पदक
नहीं मिला
बल्कि कई लोग तो यह भी सोच
सकते हैं
कि यह भी कोई हुनर है
फटे जूतों को सिलने का
पर भीतर ही भीतर जानते है
वे यह हकीकत की
फटे जुतों के साथ चलना
कितना कठिन है
यह बात अलग है कि
वे अब डयूरेबल जूतें पहनने लगे हैं


यह मोची, पीपल, पुलिया और बहते हुये पानी के
तिलिस्म की कविता नहीं है
यह सच्चाई है
जो केवल और केवल
कविता की मिटटी में ही
मौजुद है


यह आज की नहीं
हमेशा की जरुरत है कि
पुल भी रहना चाहियें
मोची भी
पेड के नीचें बहता पानी भी
जिसमें अब कोई छवि पहले
की तरह साफ नजर नहीं आती

गुरुवार, 7 फ़रवरी 2008

पुस्तक पर्व


अच्छी किताबों कि उपयोगिता से हम सभी वाकिफ हैं। टेलीविजन, इंटरनेट के व्यापक प्रभाव के बावजुद किताबें पढने
का एक अलग ही आनंद है, अब जब इस आनंद से सराबोर होने का सुअवसर दिल्ली विश्व पुस्तक मेले ने उपलब्ध
करवाया है तो चलो दिल्ली की ओर कदम बढाया जाये। २००४ में पहली बार विश्व पुस्तक मेले मे जाना हुआ, चारो
ओर पुस्तके ही पुस्तके देख कर मन खुश हो गया। इसके अलावा कई साहित्यकारो जिन्हें अब तक पढा है, से रुबरु
होने का भी मौका मिला। राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, केदारनाथ सिहं, ओम थानवी आदि जिनसे कुछ देर बात करने
से साहित्यक ऊर्जा मिली।
भारत में लिखने की कला बहुत पुरानी है यह संकेत मिलते हैं कि रामायण ५५००० ईसवी से भी पहले और
शायद २३००० ई वी से भी पहले लेखन होता रहा है।अच्छी किताबों कि उपयोगिता से हम सभी वाकिफ हैं।
भारत में लिखने की कला बहुत पुरानी है यह संकेत मिलते हैं कि रामायण ५५००० ई वी से भी पहले और
शायद २३००० ई वी से भी पहले लेखन होता रहा है।
युनेस्को का एक काम पु्स्तकों की सँख्या और पुस्तकों के पकार दोनों पर नजर रखना भी है। इजराईल और इग्लैंड
संसार में सबसे ऊपर है हर साल नये टाईटल निकालने में। हिन्दी २०० मिलियन लोगो कि मातभाषा है इसके बावजुद
भारत में २५ हिन्दी और अंग्रेजी के ४४ अखबार निकलते है। भारत अंगेजी पुस्तकों के प्रकाशन में तीसरे नम्बर पर
है और एकमात्र देश भी है जो ३२ भाषाओं में पुस्तकों का प्रकाशन करता है।
वैसे जीवन का सफर किताबों से जोडे तो एक कविता इस प्रकार हो सकती है।
इसी सन्दर्भ पर एक कविता
पहला और आखिरी
पहले पृष्ठ की पहली पंक्तिऔर पहला पहला शब्द
ऊँगली धामें चलता
गिरता पढता
फिर हौले हौले चलता
लडखडाता हुआ
इसी शब्द नें सभी
संम्भावनाओं को जन्म दिया
बीच के सभी शब्द
अस्पष्ट
धुंधलें, स्थुल, मटमैले
दुनियादारी की धुल मिट्टी से लिपटे हुये
अंत के शब्द अपनी धकान का बोछ
दुसरों पर डालते हुये
तनावगस्त, आत्ममुग्धता में पंगे हुये
सपनों की ढलान से
उदास उतरते हुये।

रविवार, 6 जनवरी 2008

अब कहाँ जंगल में मंगल


आदि काल से ही पशु पक्षी हमारे संगी साथी रहे हैं। हमारा बचपन जंगल के किस्से कहानियों को सुन कर गुजरा है। पर आज के इस उदोगीकरण के दौर में जंगल के इन निवासियों के जीवन को हर समय खतरा बढता जा रहा है।बाघों की गिरती संख्या में तो रोक लग गई है पर गिद्द, तितलियाँ और हमारे आसपास हमेशा चहकने वाली चिडियाँ भी धीरे धीरे कम होती जा रही है।विश्व वन्यजीव कोश का कहना है कि पिछली सदी में बाघों की तीन उपपज़ातिया पूरी तरह विलुप्त हो गई हैं। जंगल के इन निवासियों के जीवन को हर समय खतरा बढता जा रहा है।हमारे भारत में काफि बडा जंगल था और अब घट कर बहुत थोडा रह गया है। है।हम हर साल १४ ६ मिलियन हेकटेयर जंगलों को खोते जा रहे है
दस सालो में जंगल का काफि हिस्सा बडी परियोजनायों में चला गया है। इससे पकृति की सरंचना बिगड गयी है। पयटन भी वन्य जीवन के लिये नुकसानदायक सिद्ध हो रहे हैं। हमारी पकृति में एक क्षृखँला बनी हुयी है जिसमें हर जानवर का अपना अलग महत्तव है। यदि एक जानवर की संख्या कम होती है तो इस पाकृतिक कडी में दुषपरिणाम होगें। भारत में इस समय केवल ३५९ शेर ही बचे हैं, घडियालों की संख्याँ १४०० और बाघों की १५००। ताज्जुब की बात है की जंगल के ये पाकतिक जीव केवल गिनती भर के ही धरा पर शेष बचे हैं। हमारा राष्टीय पक्षी मोर भी इन दिनों अपने अस्तित्तव की लडाई लड रहा है। वन्य पयटन भी वन्य जीवन के लिये नुकसानदायक सिद्ध हो रहा है। भारत में लगभग बीस राज्यों में चीते हैं उनकी संख्या ३००० से लेकर ३५०० तक है। चीता लगभग खतम होने के कगार पर था पर अब सरकार नें इस ओर ध्यान दिया है। चीतों के लिये अभी भी कुछ उम्मीद बची हुयी है क्योकि भारत में उल्लास करात( जो कि वन्य जीव संरक्षण के निदेशक हैं) जैसे लोग मौजुद हैं जीवन की सेवा में कायरत हैं। अभी हाल ही में उल्लास कारात को भारत में पालॅ गेटी पुरस्कार दिया गया है। एक ओर तो जंगलों में सन्नाटा है तो दुसरी ओर शहरों में ध्वनि पदुषण लगातार बढ रहा है। इस विषय पर एक कविता
शोरगुल में गुम होती ध्वनियाँ

जब दिन बोलता
रात, चुपचाप सुना करती थी
ठीक ठाक था तब तक बोलने सुनने का यह
सिलसिला
फिर हुआ यह कि
दिन तो बोला ही बोला
रात, सुबह, शाम सभी ने बोलना
शुरु कर दिया
अब ये सब मिलकर
सभी सारे पहर
चकचक करते हैं लगातार
इन सबके शोर तले
दब कर रह गया है
एक सिरे से दुसरे सिरे का संदेश
पक्षियों की कलरव ध्वनि
हवा की मधुर सरसराहट
बुंदों की रिमझिम
मंञों की गुंज
ध्वनियों की बेशकिमती

अब खत्तम होनें की कगार है।